।।1.27।।

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि। तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।1.27।।

tān samīkṣhya sa kaunteyaḥ sarvān bandhūn avasthitān kṛipayā parayāviṣhṭo viṣhīdann idam abravīt

tān—these; samīkṣhya—on seeing; saḥ—they; kaunteyaḥ—Arjun, the son of Kunti; sarvān—all; bandhūn—relatives; avasthitān—present; kṛipayā—by compassion; parayā—great; āviṣhṭaḥ—overwhelmed; viṣhīdan—deep sorrow; idam—this; abravīt—spoke

अनुवाद

।।1.27।। अपनी-अपनी जगह पर स्थित उन सम्पूर्ण बान्धवों को देखकर वे कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरता से युक्त होकर विषाद करते हुए ये वचन बोले।  

टीका

।।1.27।। व्याख्या--'तान् सर्वान्बन्धूनवस्थितान् समीक्ष्य'-- पूर्वश्लोकके अनुसार अर्जुन जिनको देख चुके हैं, उनके अतिरिक्त अर्जुनने बाह्लीक आदि प्रपितामह; धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, सुरथ आदि साले; जयद्रथ आदि बहनोई तथा अन्य कई सम्बन्धियोंको दोनों सेनाओंमें स्थित देखा।  स कौन्तेयः कृपया परयाविष्टः  इन पदोंमें  'स कौन्तेयः कृपया परयाविष्ट:'-- कहनेका तात्पर्य है कि माता कुन्तीने जिनको युद्ध करनेके लिये सन्देश

भेजा था और जिन्होंने शूरवीरतामें आकर मेरे साथ दो हाथ करनेवाले कौन हैं?'--ऐसे मुख्य-मुख्य योद्धाओंको देखनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णको दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेकी आज्ञा दी थी, वे ही कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरतासे युक्त हो जाते हैं! दोनों ही सेनाओंमें जन्मके और विद्याके सम्बन्धी-ही-सम्बन्धी देखनेसे अर्जुनके मनमें यह विचार आया कि युद्धमें चाहे इस पक्षके लोग मरें, चाहे उस पक्षके लोग मरें,

नुकसान हमारा ही होगा, कुल तो हमारा ही नष्ट होगा, सम्बन्धी तो हमारे ही मारे जायँगे! ऐसा विचार आनेसे अर्जुनकी युद्धकी इच्छा तो मिट गयी और भीतरमें कायरता आ गयी। इस कायरताको भगवान्ने आगे (2। 23 में) 'कश्मलम्' तथा 'हृदयदौर्बल्यम्' कहा है, और अर्जुनने (2। 7 में) 'कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः' कहकर इसको स्वीकार भी किया है। अर्जुन कायरतासे आविष्ट हुए हैं--'कृपयाविष्टः' इससे सिद्ध होता है कि यह कायरता पहले नहीं

थी, प्रत्युत अभी आयी है। अतः यह आगन्तुक दोष है। आगन्तुक होनेसे यह ठहरेगी नहीं। परन्तु शूरवीरता अर्जुनमें स्वाभाविक है; अतः वह तो रहेगी ही। अत्यन्त कायरता क्या है? बिना किसी कारण निन्दा, तिरस्कार, अपमान करनेवाले, दुःख देनेवाले, वैरभाव रखनेवाले, नाश करनेकी चेष्टा करनेवाले दुर्योधन ,दुःशासन, शकुनि आदिको अपने सामने युद्ध करनेके लिये खड़े देखकर भी उनको मारनेका विचार न होना, उनका नाश करनेका उद्योग न करना--यह

अत्यन्त कायरतारूप दोष है। यहाँ अर्जुनको कायरतारूप दोषने ऐसा घेर लिया है कि जो अर्जुन आदिका अनिष्ट चाहनेवाले और समय-समयपर अनिष्ट करनेका उद्योग करनेवाले हैं, उन अधर्मियों--पापियोंपर भी अर्जुनको करुणा आ रही है (गीता 1। 35 46) और वे क्षत्रियके कर्तव्यरूप अपने धर्मसे च्युत हो रहे हैं।  'विषीदन्निदमब्रवीत्'-- युद्धके परिणाममें कुटुम्बकी, कुलकी, देशकी क्या दशा होगी--इसको लेकर अर्जुन बहुत दुःखी हो रहे हैं और उस अवस्थामें वे ये वचन बोलते हैं, जिसका वर्णन आगेके श्लोकोंमें किया गया है।