।।1.37।।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्। स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।1.37।।
tasmān nārhā vayaṁ hantuṁ dhārtarāṣhṭrān sa-bāndhavān sva-janaṁ hi kathaṁ hatvā sukhinaḥ syāma mādhava
tasmāt—hence; na—never; arhāḥ—behoove; vayam—we; hantum—to kill; dhārtarāṣhṭrān—the sons of Dhritarashtra; sva-bāndhavān—along with friends; sva-janam—kinsmen; hi—certainly; katham—how; hatvā—by killing; sukhinaḥ—happy; syāma—will we become; mādhava—Shree Krishna, the husband of Yogmaya
अनुवाद
।।1.37।। इसलिये अपने बान्धव इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि हे माधव! अपने कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?
टीका
1.37।। व्याख्या-- 'तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्'-- अभीतक (1। 28 से लेकर यहाँतक) मैंने कुटुम्बियोंको न मारनेमें जितनी युक्तियाँ, दलीलें दी हैं, जितने विचार प्रकट किये हैं, उनके रहते हुए हम ऐसे अनर्थकारी कार्यमें कैसे प्रवृत्त हो सकते हैं? अपने बान्धव इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको मारनेका कार्य हमारे लिये सर्वथा ही अयोग्य है, अनुचित है। हम-जैसे अच्छे पुरुष ऐसा अनुचित कार्य कर
ही कैसे सकते हैं? 'स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव'-- हे माधव! इन कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे ही बड़ा दुःख हो रहा है, संताप हो रहा है, तो फिर क्रोध तथा लोभके वशीभूत होकर हम उनको मार दें तो कितना दुःख होगा! उनको मारकर हम कैसे सुखी होंगे? यहाँ 'ये हमारे घनिष्ठ सम्बन्धी हैं'--इस ममताजनित मोहके कारण अपने क्षत्रियोचित कर्तव्यकी तरफ अर्जुनकी दृष्टि ही नहीं जा रही है। कारण कि जहाँ मोह होता है, वहाँ मनुष्यका विवेक दब जाता है। विवेक दबनेसे मोहकी प्रबलता हो जाती है। मोहके प्रबल होनेसे अपने कर्तव्यका स्पष्ट भान नहीं होता।