।।10.18।।
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन। भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।10.18।।
vistareṇātmano yogaṁ vibhūtiṁ cha janārdana bhūyaḥ kathaya tṛiptir hi śhṛiṇvato nāsti me ’mṛitam
vistareṇa—in detail; ātmanaḥ—your; yogam—divine glories; vibhūtim—opulences; cha—also; janaārdana—Shree Krishna, he who looks after the public; bhūyaḥ—again; kathaya—describe; tṛiptiḥ—satisfaction; hi—because; śhṛiṇvataḥ—hearing; na—not; asti—is; me—my; amṛitam—nectar
अनुवाद
।।10.18।। हे जनार्दन ! आप अपने योग (सामर्थ्य) को और विभूतियोंको विस्तारसे फिर कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनते-सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।
टीका
।।10.18।। व्याख्या--'विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन'--भगवान्ने सातवें और नवें अध्यायमें ज्ञानविज्ञानका विषय खूब कह दिया। इतना कहनेपर भी उनकी तृप्ति नहीं हुई, इसलिये दसवाँ अध्याय अपनी ओरसे ही कहना शुरू कर दिया। भगवान्ने दसवाँ अध्याय आरम्भ करते हुए कहा कि 'तू फिर मेरे परम वचनको सुन।'