।।10.2।।

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः। अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।10.2।।

na me viduḥ sura-gaṇāḥ prabhavaṁ na maharṣhayaḥ aham ādir hi devānāṁ maharṣhīṇāṁ cha sarvaśhaḥ

na—neither; me—my; viduḥ—know; sura-gaṇāḥ—the celestial gods; prabhavam—origin; na—nor; mahā-ṛiṣhayaḥ—the great sages; aham—I; ādiḥ—the source; hi—certainly; devānām—of the celestial gods; mahā-ṛiṣhīṇām—of the great seers; cha—also; sarvaśhaḥ—in every way

अनुवाद

।।10.2।। मेरे प्रकट होनेको न देवता जानते हैं और न महर्षि; क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओं और महर्षियोंका आदि हूँ।

टीका

।।10.2।। व्याख्या --न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः--यद्यपि देवताओंके शरीर, बुद्धि, लोक, सामग्री आदि सब दिव्य हैं, तथापि वे मेरे प्रकट होनेको नहीं जानते। तात्पर्य है कि मेरा जो विश्वरूपसे प्रकट होना है, मत्स्य, कच्छप आदि अवताररूपसे प्रकट होना है, सृष्टिमें क्रिया, भाव और विभूतिरूपसे प्रकट होना है, ऐसे मेरे प्रकट होनेके उद्देश्यको, लक्ष्यको, हेतुओंको देवता भी पूरापूरा नहीं जानते। मेरे प्रकट होनेको

पूरा-पूरा जानना तो दूर रहा, उनको तो मेरे दर्शन भी बड़ी कठिनतासे होते हैं। इसलिये वे मेरे दर्शनके लिये हरदम लालायित रहते हैं (गीता 11। 52)।ऐसे ही जिन महर्षियोंने अनेक ऋचाओंको, मन्त्रोंको, विद्याओंको, विलक्षणविलक्षण शक्तियोंको प्रकट किया है, जो संसारसे ऊँचे उठे हुए हैं, जो दिव्य अनुभवसे युक्त हैं, जिनके लिये कुछ करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहा है, ऐसे तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महर्षि लोग भी मेरे प्रकट

होनेको अर्थात् मेरे अवतारोंको, अनेक प्रकारकी लीलाओंको, मेरे महत्त्वको पूरा-पूरा नहीं जानते।यहाँ भगवान्ने देवता और महर्षि -- इन दोनोंका नाम लिया है। इसमें ऐसा मालूम देता है कि ऊँचे पदकी दृष्टिसे देवताका नाम और ज्ञानकी दृष्टिसे महर्षिका नाम लिया गया है। इन दोनोंका मेरे प्रकट होनेको न जाननेमें कारण यह है कि मैं देवताओँ और महर्षियोंका सब प्रकारसे आदि हूँ-- अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः। उनमें

जो कुछ बुद्धि है, शक्ति है, सामर्थ्य है, पद है, प्रभाव है, महत्ता है, वह सब उन्होंने मेरेसे ही प्राप्त की है। अतः मेरेसे प्राप्त किये हुए प्रभाव, शक्ति, सामर्थ्य आदिसे वे मेरेको पूरा कैसे जान सकते हैं? अर्थात् नहीं जान सकते। जैसे बालक जिस माँसे पैदा हुआ है, उस माँके विवाहको और अपने शरीरके पैदा होनेको नहीं जानता? ऐसे ही देवता और महर्षि मेरेसे ही प्रकट हुए हैं अतः वे मेरे प्रकट होनेको और अपने कारणको

नहीं जानते। कार्य अपने कारणमें लीन तो हो सकता है, पर उसको जान नहीं सकता। ऐसे ही देवता और महर्षि मेरेसे उत्पन्न होनेसे, मेरा कार्य होनेसे कारणरूप मेरेको नहीं जान सकते, प्रत्युत मेरेमें लीन हो सकते हैं।तात्पर्य यह हुआ कि देवता और महर्षि भगवान्के आदिको, अन्तको और वर्तमानकी इयत्ताको अर्थात् भगवान् ऐसे ही हैं, इतने ही अवतार लेते हैं -- इस माप-तौलको नहीं जान सकते। कारण कि इन देवताओं और महर्षियोंके प्रकट

होनेसे पहले भी भगवान् ज्यों-के-त्यों ही थे और उनके लीन होनेपर भी भगवान् ज्यों-के-त्यों ही रहेंगे। अतः जिनके शरीरोंका आदि और अन्त होता रहता है, वे देवता और महर्षि अनादि-अनन्तको अर्थात् असीम परमात्माको अपनी सीमित बुद्धि, योग्यता, सामर्थ्य आदिके द्वारा कैसे जान सकते हैं? असीमको अपनी सीमित बुद्धिके अन्तर्गत कैसे ला सकते हैं? अर्थात् नहीं ला सकते।इसी अध्यायके चौदहवें श्लोकमें अर्जुनने भी भगवान्से कहा है

कि आपको देवता और दानव नहीं जानते; क्योंकि देवताओंके पास भोग-सामग्रीकी और दानवोंके पास माया-शक्तिकी अधिकता है। तात्पर्य है कि भोगोंमें लगे रहनेसे देवताओँको (मेरेको जाननेके लिये) समय ही नहीं मिलता और माया-शक्तिसे छल-कपट करनेसे दानव मेरेको जान ही नहीं सकते।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें कहा गया कि देवता और महर्षिलोग भी भगवान्के प्रकट होनेको सर्वथा नहीं जान सकते, तो फिर मनुष्य भगवान्को कैसे जानेगा और उसका कल्याण कैसे होगा? इसका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।