।।11.29।।

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः। तथैव नाशाय विशन्ति लोका स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः।।11.29।।

yathā pradīptaṁ jvalanaṁ pataṅgā viśhanti nāśhāya samṛiddha-vegāḥ tathaiva nāśhāya viśhanti lokās tavāpi vaktrāṇi samṛiddha-vegāḥ

yathā—as; pradīptam—blazing; jvalanam—fire; pataṅgāḥ—moths; viśhanti—enter; nāśhāya—to be perished; samṛiddha vegāḥ—with great speed; tathā eva—similarly; nāśhāya—to be perished; viśhanti—enter; lokāḥ—these people; tava—your; api—also; vaktrāṇi—mouths; samṛiddha-vegāḥ—with great speed

अनुवाद

।।11.29।। जैसे पतंगे मोहवश अपना नाश करनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ते हुए प्रज्वलित अग्निमें प्रविष्ट होते हैं, ऐसे ही ये सब लोग भी मोहवश अपना नाश करनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ते हुए आपके मुखोंमें प्रविष्ट हो रहे हैं।

टीका

।।11.29।। व्याख्या--यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः--जैसे हरी-हरी घासमें रहनेवाले पतंगे चातुर्मासकी अँधेरी रात्रिमें कहींपर प्रज्वलित अग्नि देखते हैं, तो उसपर मुग्ध होकर (कि बहुत सुन्दर प्रकाश मिल गया, हम इससे लाभ ले लेंगे, हमारा अँधेरा मिट जायगा) उसकी तरफ बड़ी तेजीसे दौड़ते हैं। उनमेंसे कुछ तो प्रज्वलित अग्निमें स्वाहा हो जाते हैं; कुछको अग्निकी थोड़ी-सी लपट लग जाती है तो उनका

उड़ना बंद हो जाता है और वे तड़पते रहते हैं। फिर भी उनकी लालसा उस अग्निकी तरफ ही रहती है! यदि कोई पुरुष दया करके उस अग्निको बुझा देता है तो वे पंतगे बड़े दुःखी हो जाते हैं कि उसने हमारेको बड़े लाभसे वञ्चित कर दिया! तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समुद्धवेगाः --भोग भोगने और संग्रह करनेमें ही तत्परतापूर्वक लगे रहना और मनमें भोगों और संग्रहका ही चिन्तन होते रहना -- यह बढ़ा हुआ सांसारिक वेग है।

ऐसे वेगवाले दुर्योधनादि राजालोग पंतगोंकी तरह बड़ी तेजीसे कालचक्ररूप आपके मुखोंमें जा रहे हैं अर्थात् पतनकी तरफ जा रहे हैं--चौरासी लाख योनियों और नरकोंकी तरफ जा रहे हैं। तात्पर्य यह हुआ कि प्रायः मनुष्य सांसारिक भोग, सुख, आराम, मान, आदर आदिको प्राप्त करनेके लिये रात-दिन दौड़ते हैं। उनको प्राप्त करनेमें उनका अपमान होता है, निन्दा होती है, घाटा लगता है, चिन्ता होती है, अन्तःकरणमें जलन होती है और जिस

आयुके बलपर वे जी रहे हैं, वह आयु भी समाप्त होती जाती है, फिर भी वे नाशवान् भोग और संग्रहकी प्राप्तिके लिये भीतरसे लालायित रहते हैं (टिप्पणी प0 593)।  सम्बन्ध--पीछेके दो श्लोकोंमें दो दृष्टान्तोंसे दोनों समुदायोंका वर्णन करके अब सम्पूर्ण लोकोंका ग्रसन करते हुए विश्वरूप भगवान्के भयानक रूपका वर्णन करते हैं।