।।11.3।।

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर। द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।11.3।।

evam etad yathāttha tvam ātmānaṁ parameśhvara draṣhṭum ichchhāmi te rūpam aiśhwaraṁ puruṣhottama

evam—thus; etat—this; yathā—as; āttha—have spoken; tvam—you; ātmānam—yourself; parama-īśhvara—Supreme Lord; draṣhṭum—to see; ichchhāmi—I desire; te—your; rūpam—form; aiśhwaram—divine; puruṣha-uttama—Shree Krishna, the Supreme Divine Personality

अनुवाद

।।11.3।। हे पुरुषोत्तम ! आप अपने-आपको जैसा कहते हैं, यह वास्तवमें ऐसा ही है। हे परमेश्वर ! आपके ईश्वर-सम्बन्धी रूपको मैं देखना चाहता हूँ।

टीका

।।11.3।। व्याख्या --'पुरुषोत्तम'--यह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि हे भगवन् !मेरी दृष्टिमें इस संसारमें आपके समान कोई उत्तम, श्रेष्ठ नहीं है अर्थात् आप ही सबसे उत्तम, श्रेष्ठ हैं। इस बातको आगे पन्द्रहवें अध्यायमें भगवान्ने भी कहा है कि मैं क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम हूँ; अतः मैं शास्त्र और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ (15। 18)।