।।11.52।।
श्री भगवानुवाच सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम। देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।11.52।।
śhrī-bhagavān uvācha su-durdarśham idaṁ rūpaṁ dṛiṣhṭavān asi yan mama devā apy asya rūpasya nityaṁ darśhana-kāṅkṣhiṇaḥ
śhrī-bhagavān uvācha—the Supreme Lord said; su-durdarśham—exceedingly difficult to behold; idam—this; rūpam—form; dṛiṣhṭavān asi—that you are seeing; yat—which; mama—of mine; devāḥ—the celestial gods; api—even; asya—this; rūpasya—form; nityam—eternally; darśhana-kāṅkṣhiṇaḥ—aspiring to see;
अनुवाद
।।11.52।। श्रीभगवान् बोले -- मेरा यह जो रूप तुमने देखा है, इसके दर्शन अत्यन्त ही दुर्लभ हैं। इस रूपको देखनेके लिये देवता भी नित्य लालायित रहते हैं।
टीका
।।11.52।। व्याख्या--'सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम'--यहाँ 'सुदुर्दर्शम्' पद चतुर्भुजरूपके लिये ही आया है, विराट्रूप या द्विभुजरूपके लिये नहीं। कारण कि विराट्रूपकी तो देवता भी कल्पना क्यों करने लगे ! और मनुष्यरूप जब मनुष्योंके लिये सुलभ था, तब देवताओंके ल,ये वह दुर्लभ कैसे होता ! इसलिये 'सुदुर्दर्शम्' पदसे भगवान् विष्णुका चतुर्भुजरूप ही लेना चाहिये, जिसके लिये 'देवरूपम्' (11। 45) और स्वकं रूपम् (11। 50) पद आये हैं।