।।12.13।।

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।12.13।।

adveṣhṭā sarva-bhūtānāṁ maitraḥ karuṇa eva cha nirmamo nirahankāraḥ sama-duḥkha-sukhaḥ kṣhamī

adveṣhṭā—free from malice; sarva-bhūtānām—toward all living beings; maitraḥ—friendly; karuṇaḥ—compassionate; eva—indeed; cha—and; nirmamaḥ—free from attachment to possession; nirahankāraḥ—free from egoism; sama—equipoised; duḥkha—distress; sukhaḥ—happiness; kṣhamī—forgiving;

अनुवाद

।।12.13।।सब प्राणियोंमें द्वेषभावसे रहित, सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु, ममतारहित, अहंकाररहित, सुखदुःखकी प्राप्तिमें सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीरको वशमें किये हुए, दृढ़ निश्चयवाला? मेरेमें अर्पित मनबुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मेरेको प्रिय है।

टीका

।।12.13।। व्याख्या --'अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्'-- अनिष्ट करनेवालोंके दो भेद हैं -- (1) इष्टकी प्राप्तिमें अर्थात् धन, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदिकी प्राप्तिमें बाधा पैदा करनेवाले और (2) अनिष्ट पदार्थ, क्रिया, व्यक्ति, घटना आदिसे संयोग करानेवाले। भक्तके शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और सिद्धान्तके प्रतिकूल चाहे कोई कितना ही, किसी प्रकारका व्यवहार करे -- इष्टकी प्राप्तिमें बाधा डाले, किसी प्रकारकी आर्थिक

और शारीरिक हानि पहुँचाये, पर भक्तके हृदयमें उसके प्रति कभी किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं होता। कारण कि वह प्राणिमात्रमें अपने प्रभुको ही व्याप्त देखता है, ऐसी स्थितिमें वह विरोध करे तो किससे करे --,'निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।' (मानस 7। 112 ख)।इतना ही नहीं; वह तो अनिष्ट करनेवालोंकी सब क्रियाओंको भी भगवान्का कृपापूर्ण मङ्गलमय विधान ही मानता है! प्राणिमात्र स्वरूपसे भगवान्का ही अंश है।

अतः किसी भी प्राणीके प्रति थोड़ा भी द्वेषभाव रहना भगवान्के प्रति ही द्वेष है। इसलिये किसी प्राणीके प्रति द्वेष रहते हुए भगवान्से अभिन्नता तथा अनन्यप्रेम नहीं हो सकता। प्राणिमात्रके प्रति द्वेषभावसे रहित होनेपर ही भगवान्में पूर्ण प्रेम हो सकता है। इसलिये भक्तमें प्राणिमात्रके प्रति द्वेषका सर्वथा अभाव होता है। 'मैत्रः करुण एव च' (टिप्पणी प0 648)-- भक्तके अन्तःकरणमें प्राणिमात्रके प्रति केवल द्वेषका

अत्यन्त अभाव ही नहीं होता, प्रत्युत सम्पूर्ण प्राणियोंमें भगवद्भाव होनेके नाते उसका सबसे मैत्री और दयाका व्यवहार भी होता है। भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं --'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता 5। 29)। भगवान्का स्वभाव भक्तमें अवतरित होनेके कारण भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् होता है --'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भागवत 3। 25। 21)। इसलिये भक्तका भी सभी प्राणियोंके प्रति बिना किसी स्वार्थके स्वाभाविक ही मैत्री और दयाका भाव रहता है --