।।12.14।।

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।12.14।।

santuṣhṭaḥ satataṁ yogī yatātmā dṛiḍha-niśhchayaḥ mayy arpita-mano-buddhir yo mad-bhaktaḥ sa me priyaḥ

santuṣhṭaḥ—contented; satatam—steadily; yogī—united in devotion; yata-ātmā—self-controlled; dṛiḍha-niśhchayaḥ—firm in conviction; mayi—to me; arpita—dedicated; manaḥ—mind; buddhiḥ—intellect; yaḥ—who; mat-bhaktaḥ—my devotees; saḥ—they; me—to me; priyaḥ—very dear

अनुवाद

।।12.14।।सब प्राणियोंमें द्वेषभावसे रहित, सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु, ममतारहित, अहंकाररहित, सुखदुःखकी प्राप्तिमें सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट,योगी, शरीरको वशमें किये हुए, दृढ़ निश्चयवाला, मेरेमें अर्पित मन-बुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मेरेको प्रिय है।

टीका

।।12.14।। व्याख्या--'अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्'--अनिष्ट करनेवालोंके दो भेद हैं -- (1) इष्टकी प्राप्तिमें अर्थात् धन, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदिकी प्राप्तिमें बाधा पैदा करनेवाले और (2) अनिष्ट पदार्थ, क्रिया, व्यक्ति, घटना आदिसे संयोग करानेवाले। भक्तके शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और सिद्धान्तके प्रतिकूल चाहे कोई कितना ही, किसी प्रकारका व्यवहार करे -- इष्टकी प्राप्तिमें बाधा डाले, किसी प्रकारकी आर्थिक और

शारीरिक हानि पहुँचाये, पर भक्तके हृदयमें उसके प्रति कभी किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं होता। कारण कि वह प्राणिमात्रमें अपने प्रभुको ही व्याप्त देखता है, ऐसी स्थितिमें वह विरोध करे तो किससे करे --'निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।' (मानस 7। 112 ख)। इतना ही नहीं वह तो अनिष्ट करनेवालोंकी सब क्रियाओंको भी भगवान्का कृपापूर्ण मङ्गलमय विधान ही मानता है! प्राणिमात्र स्वरूपसे भगवान्का ही अंश है। अतः

किसी भी प्राणीके प्रति थोड़ा भी द्वेषभाव रहना भगवान्के प्रति ही द्वेष है। इसलिये किसी प्राणीके प्रति द्वेष रहते हुए भगवान्से अभिन्नता तथा अनन्यप्रेम नहीं हो सकता। प्राणिमात्रके प्रति द्वेषभावसे रहित होनेपर ही भगवान्में पूर्ण प्रेम हो सकता है। इसलिये भक्तमें प्राणिमात्रके प्रति द्वेषका सर्वथा अभाव होता है। 'मैत्रः करुण एव च' (टिप्पणी प0 648) -- भक्तके अन्तःकरणमें प्राणिमात्रके प्रति केवल द्वेषका

अत्यन्त अभाव ही नहीं होता, प्रत्युत सम्पूर्ण प्राणियोंमें भगवद्भाव होनेके नाते उसका सबसे मैत्री और दयाका व्यवहार भी होता है। भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं -- 'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता 5। 29)। भगवान्का स्वभाव भक्तमें अवतरित होनेके कारण भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् होता है -- 'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भागवत 3। 25। 21)। इसलिये भक्तका भी सभी प्राणियोंके प्रति बिना किसी स्वार्थके स्वाभाविक

ही मैत्री और दयाका भाव रहता है -- 'हेतु रहित जग जुग उपकारी।' 'तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।। (मानस 7। 47। 3)अपना अनिष्ट करनेवालोंके प्रति भी भक्तके द्वारा मित्रताका व्यवहार होता है; क्योंकि उसका भाव यह रहता है कि अनिष्ट करनेवालेने अनिष्टरूपमें भगवान्का विधान ही प्रस्तुत किया है। अतः उसने जो कुछ किया है, मेरे लिये ठीक ही किया है। कारण कि भगवान्का विधान सदैव मङ्गलमय होता है। इतना ही नहीं, भक्त यह मानता

है कि मेरा अनिष्ट करनेवाला (अनिष्टमें निमित्त बनकर) मेरे पूर्वकृत पापकर्मोंका नाश कर रहा है; अतः वह विशेषरूपसे आदरका पात्र है।साधकमात्रके मनमें यह भाव रहता है और रहना ही चाहिये कि उसका अनिष्ट करनेवाला उसके पिछले पापोंका फल भुगताकर उसे शुद्ध कर रहा है। जब सामान्य साधकमें भी अनिष्ट करनेवालेके प्रति मैत्री और करुणाका भाव रहता है, फिर सिद्ध भक्तका तो कहना ही क्या है? सिद्ध भक्तका तो उसके प्रति ही क्या,

प्राणिमात्रके प्रति मैत्री और दयाका विलक्षण भाव रहता है।पातञ्जलयोगदर्शनमें चित्त-शुद्धिके चार हेतु बताये गये हैं --,'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।' (1। 33)'सुखियोंके प्रति मैत्री, दुःखियोंके प्रति करुणा, पुण्यात्माओंके प्रति मुदिता (प्रसन्नता) और पापात्माओंके प्रति उपेक्षाके भावसे चित्तमें निर्मलता आती है।' परन्तु भगवान्ने इन चारों हेतुओँको दोमें विभक्त

कर दिया है -- 'मैत्रः च करुणः।' तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्तका सुखियों और पुण्यात्माओंके प्रति 'मैत्री' का भाव तथा दुःखियों और पापात्माओंके प्रति 'करुणा' का भाव रहता है। दुःख पानेवालेकी अपेक्षा दुःख देनेवाले पर (उपेक्षाका भाव न होकर) दया होनी चाहिये; क्योंकि दुःख पानेवाला तो (पुराने पापोंका फल भोगकर) पापोंसे छूट रहा है, पर दुःख देनेवाला नया पाप कर रहा है। अतः दुःख देनेवाला दयाका विशेष पात्र है। 'निर्ममः'--

यद्यपि भक्तका प्राणिमात्रके प्रति स्वाभाविक ही मैत्री और करुणाका भाव रहता है, तथापि उसकी किसीके प्रति किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होती। प्राणियों और पदार्थोंमें ममता (मेरेपनका भाव) ही मनुष्यको संसारमें बाँधनेवाली होती है। भक्त इस ममतासे सर्वथा रहित होता है। उसकी अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिमें भी बिलकुल ममता नहीं होती। साधकसे भूल यह होती है कि वह प्राणियों और पदार्थोंसे तो ममताको

हटानेकी चेष्टा करता है, पर अपने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियोंसे ममता हटानेकी ओर विशेष ध्यान नहीं देता। इसीलिये वह सर्वथा निर्मम नहीं हो पाता। 'निरहंकारः' -- शरीर, इन्द्रियाँ आदि जड-पदार्थोंको अपना स्वरूप माननेसे अहंकार उत्पन्न होता है।भक्तकी अपने शरीरादिके प्रति किञ्चिन्मात्र भी अहंबुद्धि न होनेके कारण तथा केवल भगवान्से अपने नित्य सम्बन्धका अनुभव हो जानेके कारण उसके अन्तःकरणमें स्वतः श्रेष्ठ, दिव्य,

अलौकिक गुण प्रकट होने लगते हैं। इन गुणोंको भी वह अपने गुण नहीं मानता, प्रत्युत (दैवी सम्पत्ति होनेसे) भगवान्के ही मानता है। 'सत्'-(परमात्मा-)के होनेके कारण ही ये गुण 'सद्गुण' कहलाते हैं। ऐसी दशामें भक्त उनको अपना मान ही कैसे सकता है! इसलिये वह अहंकारसे सर्वथा रहित होता है। 'समदुःखसुखः' -- भक्त सुख-दुःखोंकी प्राप्तिमें सम रहता है अर्थात् अनुकूलता-प्रतिकूलता उसके हृदयमें रागद्वेष, हर्षशोक आदि विकार

पैदा नहीं कर सकते।गीतामें सुखदुःख पद अनुकूलता-प्रतिकूलताकी परिस्थिति-(जो सुख-दुःख उत्पन्न करनेमें हेतु है) के लिये तथा अन्तःकरणमें होनेवाले हर्ष-शोकादि विकारोंके लिये भी आया है।अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति मनुष्यको सुखी-दुःखी बनाकर ही उसे बाँधती है। इसलिये सुख-दुःखमें सम होनेका अर्थ है -- अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर अपनेमें हर्ष-शोकादि विकारोंका न होना।भक्तके शरीर, इन्द्रियाँ, मन, सिद्धान्त

आदिके अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, घटना आदिका संयोग या वियोग होनेपर उसे अनुकूलता और प्रतिकूलताका 'ज्ञान' तो होता है, पर उसके अन्तःकरणमें हर्ष-शोकादि कोई 'विकार' उत्पन्न नहीं होता। यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिये कि किसी परिस्थितिका ज्ञान होना अपने-आपमें कोई दोष नहीं है, प्रत्युत उससे अन्तःकरणमें विकार उत्पन्न होना ही दोष है। भक्त राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंसे सर्वथा रहित होता है।

जैसे, प्रारब्धानुसार भक्तके शरीरमें कोई रोग होनेपर उसे शारीरिक पीड़ाका ज्ञान (अनुभव) तो होगा; किन्तु उसके अन्तःकरणमें किसी प्रकारका विकार नहीं होगा।'क्षमी' -- अपना किसी तरहका भी अपराध करनेवालेको किसी भी प्रकारका दण्ड देनेकी इच्छा न रखकर उसे क्षमा कर देनेवालेको 'क्षमी' कहते हैं।भक्तके लक्षणोंमें पहले 'अद्वेष्टा' पद देकर भगवान्ने भक्तमें अपना अपराध करनेवालेके प्रति द्वेषका अभाव बताया, अब यहाँ 'क्षमी'

पदसे यह बताते हैं कि भक्तमें अपना अपराध करनेवालेके प्रति ऐसा भाव रहता है कि उसको भगवान् अथवा अन्य किसीके द्वारा भी दण्ड न मिले। ऐसा क्षमाभाव भक्तकी एक विशेषता है। 'संतुष्टः सततम्' (टिप्पणी प0 650.1) -- जीवको मनके अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिके संयोगमें और मनके प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिके वियोगमें एक संतोष होता है। विजातीय और अनित्य पदार्थोंसे होनेके कारण यह संतोष

स्थायी नहीं रह पाता। स्वयं नित्य होनेके कारण जीवको नित्य परमात्माकी अनुभूतिसे ही वास्तविक और स्थायी संतोष होता है। भगवान्को प्राप्त होनेपर भक्त नित्य-निरन्तर संतुष्ट रहता है; क्योंकि न तो उसका भगवान्से कभी वियोग होता है और न उसको नाशवान् संसारकी कोई आवश्यकता ही रहती है। अतः उसके असंतोषका कोई कारण ही नहीं रहता। इस संतुष्टिके कारण वह संसारके किसी भी प्राणी-पदार्थके प्रति किञ्चिन्मात्र भी महत्त्वबुद्धि

नहीं रखता (टिप्पणी प0 650.2)।'संतुष्टः' के साथ 'सततम्' पद देकर भगवान्ने भक्तके उस नित्य-निरन्तर रहनेवाले संतोषकी ओर ही लक्ष्य कराया है, जिसमें न तो कभी कोई अन्तर पड़ता है और न कभी अन्तर पड़नेकी सम्भावना ही रहती है। कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग -- किसी भी योगमार्गसे सिद्धि प्राप्त करनेवाले महापुरुषमें ऐसी संतुष्टि (जो वास्तवमें है) निरन्तर रहती है।   'योगी' -- भक्तियोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त

(नित्य-निरन्तर परमात्मासे संयुक्त) पुरुषका नाम यहाँ 'योगी' है।वास्तवमें किसी भी मनुष्यका परमात्मासे कभी वियोग हुआ नहीं, है नहीं, हो सकता नहीं और सम्भव ही नहीं। इस वास्तविकताका जिसने अनुभव कर लिया है, वही 'योगी' है।   'यतात्मा' -- जिसका मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसहित शरीरपर पूर्ण अधिकार है, वह 'यतात्मा' है। सिद्ध भक्तको मन-बुद्धि आदि वशमें करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही उसके वशमें रहते हैं।

इसलिये उसमें किसी प्रकारके इन्द्रियजन्य दुर्गुण-दुराचारी के आनेकी सम्भावना ही नहीं रहती।   वास्तवमें मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ स्वाभाविकरूपसे सन्मार्गपर चलनेके लिये ही हैं; किन्तु संसारसे रागयुक्त सम्बन्ध रहनेसे ये मार्गच्युत हो जाती हैं। भक्तका संसारसे किञ्चिन्मात्र भी रागयुक्त सम्बन्ध नहीं होता, इसलिये उसकी मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ सर्वथा उसके वशमें होती हैं। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरोंके लिये आदर्श

होती है।   ऐसा देखा जाता है कि न्याय-पथपर चलनेवाले सत्पुरुषोंकी इन्द्रियाँ भी कभी कुमार्गगामी नहीं होतीं। जैसे, राजा दुष्यन्तकी वृत्ति शकुन्तलाकी ओर जानेपर उन्हें दृढ़ विश्वास हो जाता है कि यह क्षत्रिय-कन्या ही है, ब्राह्मणकन्या नहीं। कवि कालिदासके कथनानुसार जहाँ सन्देह हो, वहाँ सत्पुरुषके अन्तःकरणकी प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है --   'सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः'।।(अभिज्ञानशाकुन्तलम्

1। 21)   जब न्यायशील सत्पुरुषकी इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति भी स्वतः कुमार्गकी ओर नहीं होती, तब सिद्ध भक्त (जो न्यायधर्मसे कभी किसी अवस्थामें च्युत नहीं होता-) की मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ कुमार्गकी ओर जा ही कैसे सकती हैं!   'दृढनिश्चयः' -- सिद्ध महापुरुषकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका सर्वथा अभाव रहता है। उसकी बुद्धिमें एक परमात्माकी ही अटल सत्ता रहती है। अतः उसकी बुद्धिमें विपर्यय-दोष (प्रतिक्षण

बदलनेवाले संसारका स्थायी दीखना) नहीं रहता। उसको एक भगवान्के साथ ही अपने नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव होता रहता है। अतः उसका भगवान्में ही दृढ़ निश्चय होता है। उसका यह निश्चय बुद्धिमें नहीं, प्रत्युत 'स्वयं' में होता है, जिसका आभास बुद्धिमें प्रतीत होता है।   संसारकी स्वतन्त्र सत्ता माननेसे अथवा संसारसे अपना सम्बन्ध माननेसे ही बुद्धिमें विपर्यय और संशयरूप दोष उत्पन्न होते हैं। विपर्यय और संशययुक्त बुद्धि

कभी स्थिर नहीं होती। ज्ञानी और अज्ञानी पुरुषकी बुद्धिके निश्चयमें ही अन्तर होता है; स्वरूपसे तो दोनों समान ही होते हैं। अज्ञानीकी बुद्धिमें संसारकी सत्ता और उसका महत्त्व रहता है; परन्तु सिद्ध भक्तकी बुद्धिमें एक भगवान्के सिवाय न तो संसारकी किसी वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ता रहती है और न उसका कोई महत्त्व ही रहता है। अतः उसकी बुद्धि विपर्यय और संशयदोषसे सर्वथा रहित होती है और उसका केवल परमात्मामें ही दृढ़

निश्चय होता है।   'मय्यर्पितमनोबुद्धिः'--जब साधक एकमात्र भगवत्प्राप्तिको ही अपना उद्देश्य बना लेता है और स्वयं भगवान्का ही हो जाता है (जो कि वास्तवमें है) तब उसके मन-बुद्धि भी अपने-आप भगवान्में लग जाते हैं। फिर सिद्ध भक्तके मन-बुद्धि भगवान्के अर्पित रहें -- इसमें तो कहना ही क्या है  जहाँ प्रेम होता है, वहाँ स्वाभाविक ही मनुष्यका मन लगता है और जिसे मनुष्य सिद्धान्तसे श्रेष्ठ समझता है, उसमें स्वाभाविक

ही उसकी बुद्धि लगती है। भक्तके लिये भगवान्से बढ़कर कोई प्रिय और श्रेष्ठ होता ही नहीं। भक्त तो मन-बुद्धिपर अपना अधिकार ही नहीं मानता। वह तो इनको सर्वथा भगवान्का ही मानता है। अतः उसके मन-बुद्धि स्वाभाविक ही भगवान्में लगे रहते हैं। 'यः मद्भक्तः स मे प्रियः' (टिप्पणी प0 651) -- भगवान्को तो सभी प्रिय हैं; परन्तु भक्तका प्रेम भगवान्के सिवाय और कहीं नहीं होता। ऐसी दशामें 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव

भजाम्यहम्।' (गीता 4। 11) -- इस प्रतिज्ञाके अनुसार भगवान्को भी भक्त प्रिय होता है।  सम्बन्ध--सिद्ध भक्तके लक्षणोंका दूसरा प्रकरण, जिसमें छः लक्षणोंका वर्णन है, आगेके श्लोकमें आया है।