।।12.9।।
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।12.9।।
atha chittaṁ samādhātuṁ na śhaknoṣhi mayi sthiram abhyāsa-yogena tato mām ichchhāptuṁ dhanañjaya
atha—if; chittam—mind; samādhātum—to fix; na śhaknoṣhi—(you) are unable; mayi—on me; sthiram—steadily; abhyāsa-yogena—by uniting with God through repeated practice; tataḥ—then; mām—me; ichchhā—desire; āptum—to attain; dhanañjaya—Arjun, the conqueror of wealth
अनुवाद
।।12.9।।अगर तू मनको मेरेमें अचलभावसे स्थिर (अर्पण) करनेमें समर्थ नहीं है, तो हे धनञ्जय ! अभ्यासयोगके द्वारा तू मेरी प्राप्तिकी इच्छा कर।
टीका
।।12.9।। व्याख्या--अथ चित्तं समाधातुं ৷৷. मामिच्छाप्तुं धनञ्जय--यहाँ 'चित्तम्' पदका अर्थ 'मन' है। परन्तु इस श्लोकका पीछेके श्लोकमें वर्णित साधनसे सम्बन्ध है, इसलिये 'चित्तम्' पदसे यहाँ मन और बुद्धि दोनों ही लेना युक्तिसंगत है।