।।13.12।।

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा।।13.12।।

adhyātma-jñāna-nityatvaṁ tattva-jñānārtha-darśhanam etaj jñānam iti proktam ajñānaṁ yad ato ’nyathā

adhyātma—spiritual; jñāna—knowledge; nityatvam—constancy; tattva-jñāna—knowledge of spiritual principles; artha—for; darśhanam—philosophy; etat—all this; jñānam—knowledge; iti—thus; proktam—declared; ajñānam—ignorance; yat—what; ataḥ—to this; anyathā—contrary

अनुवाद

।।13.12।।अध्यात्मज्ञानमें नित्य-निरन्तर रहना, तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सब जगह देखना -- यह (पूर्वोक्त साधन-समुदाय) तो ज्ञान है; और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है -- ऐसा कहा गया है।

टीका

।।13.12।। व्याख्या --   अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् -- सम्पूर्ण शास्त्रोंका तात्पर्य मनुष्यको परमात्माकी तरफ लगानेमें? परमात्मप्राप्ति करानेमें है -- ऐसा निश्चय करनेके बाद परमात्मतत्त्व जितना समझमें आया है? उसका मनन करे। युक्तिप्रयुक्तिसे देखा जाय तो परमात्मतत्त्व भावरूपसे पहले भी था? अभी भी है और आगे भी रहेगा। परन्तु संसार पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं रहेगा तथा अभी भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है।

संसारकी तो उत्पत्ति और विनाश होता है? पर उसका जो आधार? प्रकाशक है? वह परमात्मतत्त्व नित्यनिरन्तर रहता है। उस परमात्मतत्त्वके सिवाय संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। परमात्माकी सत्तासे ही संसार सत्तावाला दीखता है। इस प्रकार संसारकी स्वतन्त्र सत्ताके अभावका और परमात्माकी सत्ताका नित्यनिरन्तर मनन करते रहना अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् है।उपाय -- आध्यात्मिक ग्रन्थोंका पठनपाठन? तत्त्वज्ञ महापुरुषोंसे तत्त्वज्ञानविषयक

श्रवण और प्रश्नोत्तर करना।तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् -- तत्त्वज्ञानका अर्थ है -- परमात्मा। उस परमात्माका ही सब जगह दर्शन करना? उसका ही सब जगह अनुभव करना तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् है। वह परमात्मा सब देश? काल? वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदिमें ज्योंकात्यों परिपूर्ण है। एकान्तमें अथवा व्यवहारमें? सब समय साधककी दृष्टि? उसका लक्ष्य केवल उस परमात्मापर ही रहे। एक परमात्माके सिवाय उसको दूसरी कोई सत्ता दीखे

ही नहीं। सब जगह? सब समय समभावसे परिपूर्ण परमात्माको ही देखनेका उसका स्वभाव बन जाय -- यही,तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् है। इसके सिद्ध होनेपर साधकको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है।एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा -- अमानित्वम् से लेकर तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् तक ये जो बीस साधन कहे गये हैं? ये सभी साधन देहाभिमान मिटानेवाले होनेसे और परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें सहायक होनेसे ज्ञान नामसे कहे गये हैं।

इन साधनोंसे विपरीत मानित्व? दम्भित्व? हिंसा आदि जितने भी दोष हैं? वे सभी देहाभिमान बढ़ानेवाले होनेसे और परमात्मतत्त्वसे विमुख करनेवाले होनेसे अज्ञान नामसे कहे गये हैं।विशेष बातयदि साधकमें इतना तीव्र विवेक जाग्रत् हो जाय कि वह शरीरसे माने हुए सम्बन्धका त्याग कर सके? तो उसमें यह साधनसमुदाय स्वतः प्रकट हो जाता है। फिर उसको इन साधनोंका अलगअलग अनुष्ठान करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती। विनाशी शरीरको अपने अविनाशी

स्वरूपसे अलग देखना मूल साधन है। अतः सभी साधकोंको चाहिये कि वे शरीरको अपनेसे अलग अनुभव करें? जो कि वास्तवमें अलग ही हैपूर्वोक्त किसी भी साधनका अनुष्ठान करनेके लिये मुख्यतः दो बातोंकी आवश्यकता है -- (1) साधकका उद्देश्य केवल परमात्माको प्राप्त करना हो और (2) शास्त्रोंको पढ़तेसुनते समय यदि विवेकद्वारा शरीरको अपनेसे अलग समझ ले? तो फिर दूसरे समयमें भी उसी विवेकपर स्थिर रहे। इन दो बातोंके दृढ़ होनेसे साधनसमुदायके

सभी साधन सुगम हो जाते हैं।शरीर तो बदल गया? पर मैं वही हूँ? जो कि बचपनमें था -- यह सबके अनुभवकी बात है। अतः शरीरके साथ अपना सम्बन्ध वास्तविक न होकर केवल माना हुआ है -- ऐसा निश्चय होनेपर ही वास्तविक साधन आरम्भ होता है। साधककी बुद्धि जितने अंशमें परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यको धारण करती है? उतने ही अंशमें उसमें विवेककी जागृति तथा संसारसे वैराग्य हो जाता है। भगवान्ने विवेक और वैराग्यको पुष्ट करनेके लिये

ज्ञानके आवश्यक साधनोंका वर्णन किया है।जब मनुष्यका उद्देश्य परमात्मप्राप्ति करना ही हो जाता है? तब दुर्गुणों एवं दुराचारोंकी जड़ कट जाती है? चाहे साधकको इसका अनुभव हो या न हो जैसे वृक्षकी जड़ कटनेपर भी बड़ी टहनीपर लगे हुए पत्ते कुछ दिनतक हरे दीखते हैं किन्तु वास्तवमें उन पत्तोंके हरेपनकी भी जड़ कट चुकी है। इसलिये कुछ दिनोंके बाद कटी हुई टहनीके पत्तोंका हरापन मिट जाता है। ऐसे ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका

दृढ़ उद्देश्य होते ही दुर्गुणदुराचार मिट जाते हैं। यद्यपि साधकको आरम्भमें ऐसा अनुभव नहीं होता और उसको अपनेमें अवगुण दीखते हैं? तथापि कुछ समयके बाद उनका सर्वथा अभाव दीखने लग जाता है।साधन करते समय कभीकभी साधकको अपनेमें दुर्गुण दिखायी दे सकते हैं। परन्तु वास्तवमें साधनमें लगनेसे पहले उसमें जो दुर्गुण रहे थे? वे ही जाते हुए दिखायी देते हैं। यह नियम है कि दरवाजेसे आनेवाले,और जानेवाले -- दोनों ही दिखायी

देते हैं। यदि साधन करते समय अपनेमें दुर्गुण बढ़ते हुए दीखते हों? तो समझना चाहिये कि दुर्गुण आ रहे हैं। परन्तु यदि अपनेमें दुर्गुण कम होते हुए दीखते हों? तो समझना चाहिये कि दुर्गुण जा रहे हैं। ऐसी अवस्थामें साधकको निराश नहीं होना चाहिये? प्रत्युत अपने उद्देश्यपर दृढ़ रहकर तत्परतापूर्वक साधनमें लगे रहना चाहिये। इस प्रकार साधनमें लगे रहनेसे दुर्गुणदुराचारोंका सर्वथा अभाव हो जाता है। सम्बन्ध --   पूर्वोक्त ज्ञान(साधनसमुदाय) के द्वारा जिसको जाना जाता है? उस साध्यतत्त्वका अब ज्ञेय नामसे वर्णन आरम्भ करते हैं।