।।13.28।।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।13.28।।
samaṁ sarveṣhu bhūteṣhu tiṣhṭhantaṁ parameśhvaram vinaśhyatsv avinaśhyantaṁ yaḥ paśhyati sa paśhyati
samam—equally; sarveṣhu—in all; bhūteṣhu—beings; tiṣhṭhan-tam—accompanying; parama-īśhvaram—Supreme Soul; vinaśhyatsu—amongst the perishable; avinaśhyantam—the imperishable; yaḥ—who; paśhyati—see; saḥ—they; paśhyati—perceive
अनुवाद
।।13.28।।जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंमें परमात्माको नाशरहित और समरूपसे स्थित देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है।
टीका
।।13.28।। व्याख्या -- समं सर्वेषु भूतेषु -- परमात्माको सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम कहनेका तात्पर्य है कि सभी प्राणी विषम हैं अर्थात् स्थावरजङ्गम हैं? सात्त्विकराजसतामस हैं? आकृतिसे छोटेबड़े? लम्बेचौड़े हैं? नाना वर्णवाले हैं -- इस प्रकार तरहतरहके जितने भी प्राणी हैं? उन सब प्राणियोंमें परमात्मा समरूपसे स्थित हैं। वे परमात्मा किसीमें छोटेबड़े? कमज्यादा नहीं हैं।पहले इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने
क्षेत्रज्ञके साथ अपनी एकता बताते हुए कहा था कि तू सम्पूर्ण प्राणियोंमें क्षेत्रज्ञ मेरेको समझ? उसी बातको यहाँ कहते हैं कि सम्पूर्ण प्राणियोंमें परमात्मा समरूपसे स्थित हैं।तिष्ठन्तम् -- सम्पूर्ण प्राणी उत्पत्ति? स्थिति और प्रलय -- इन तीन अवस्थाओंमें जाते हैं सर्गप्रलय? महासर्गमहाप्रलयमें जाते हैं ऊँचनीच गतियोंमें? योनियोंमें जाते हैं अर्थात् सभी प्राणी किसी भी क्षण स्थिर नहीं रहते। परन्तु परमात्मा
उन सब अस्थिर प्राणियोंमें नित्यनिरन्तर एकरूपसे स्थित रहते हैं।परमेश्वरम् -- सभी प्राणी अपनेको किसीनकिसीका ईश्वर अर्थात् मालिक मानते ही रहते हैं परन्तु परमात्मा उन सभी प्राणियोंके तथा सम्पूर्ण जडचेतन संसारके परम ईश्वर हैं।विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति -- प्रतिक्षण विनाशकी तरफ जानेवाले प्राणियोंमें विनाशरहित? सदा एकरूप रहनेवाले परमात्माको जो निर्विकार देखता है? वही वास्तवमें सही देखता
है। तात्पर्य है कि जो,परिवर्तनशील शरीरके साथ अपनेआपको देखता है? उसका देखना सही नहीं है किन्तु जो सदा ज्योंकेत्यों रहनेवाले परमात्माके साथ अपनेआपको अभिन्नरूपसे देखता है? उसका देखना ही सही है।पहले इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा था कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका ज्ञान ही मेरे मतमें ज्ञान है? उसी बातको यहाँ कहते हैं कि जो नष्ट होनेवाले प्राणियोंमें परमात्माको नाशरहित और सम देखता है? उसका देखना (ज्ञान)
ही सही है। तात्पर्य है कि जैसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगमें क्षेत्रमें तो हरदम परिवर्तन होता है? पर क्षेत्रज्ञ ज्योंकात्यों ही रहता है? ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न और नष्ट होते हैं? पर परमात्मा सब अवस्थाओंमें समानरूपसे स्थित रहते हैं।पीछेके (छब्बीसवें) श्लोकमें भगवान्ने यह बताया कि जितने भी प्राणी पैदा होते हैं? वे सभी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे ही पैदा होते हैं। परन्तु उन दोनोंमें क्षेत्र
तो किसी भी क्षण स्थिर नहीं रहता और क्षेत्रज्ञ एक क्षण भी नहीं बदलता। अतः क्षेत्रज्ञसे क्षेत्रका जो निरन्तर वियोग हो रहा है? उसका अनुभव कर ले। इस (सत्ताईसवें) श्लोकमें भगवान् यह बताते हैं कि उत्पन्न और नष्ट होनेवाले सम्पूर्ण विषम प्राणियोंमें जो परमात्मा नाशरहित और समानरूपसे स्थित रहते हैं? उनके साथ अपनी एकताका अनुभव कर ले। सम्बन्ध -- अब भगवान् नष्ट होनेवाले सम्पूर्ण प्राणियोंमें अविनाशी परमात्माको देखनेका फल बताते हैं।