।।13.3।।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।13.3।।
kṣhetra-jñaṁ chāpi māṁ viddhi sarva-kṣhetreṣhu bhārata kṣhetra-kṣhetrajñayor jñānaṁ yat taj jñānaṁ mataṁ mama
kṣhetra-jñam—the knower of the field; cha—also; api—only; mām—me; viddhi—know; sarva—all; kṣhetreṣhu—in individual fields of activities; bhārata—scion of Bharat; kṣhetra—the field of activities; kṣhetra-jñayoḥ—of the knower of the field; jñānam—understanding of; yat—which; tat—that; jñānam—knowledge; matam—opinion; mama—my
अनुवाद
।।13.3।।हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! तू सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञ मेरेको ही समझ; और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है, वही मेरे मतमें ज्ञान है।
टीका
।।13.3।। व्याख्या -- क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत -- सम्पूर्ण क्षेत्रों(शरीरों)में मैं हूँ -- ऐसा जो अहंभाव है? उसमें मैं तो क्षेत्र है (जिसको पूर्वश्लोकमें एतत् कहा है) और हूँ मैंपनका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है (जिसको पूर्वश्लोकमें वेत्ति पदसे जाननेवाला कहा है)। मैं का सम्बन्ध होनेसे ही हूँ है। अगर मैं का सम्बन्ध न रहे तो हूँ नहीं रहेगा? प्रत्युत है रहेगा। कारण कि है ही मैंके साथ
सम्बन्ध होनेसे हूँ कहा जाता है। अतः वास्तवमें क्षेत्रज्ञ(हूँ) की परमात्मा(है) के साथ एकता है। इसी बातको भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें मेरेको ही क्षेत्रज्ञ समझो।मनुष्य किसी विषयको जानता है? तो वह जाननेमें आनेवाला विषय ज्ञेय कहलाता है। उस ज्ञेयको वह किसी करणके द्वारा ही जानता है। करण दो तरहका होता है -- बहिःकरण और अन्तःकरण। मनुष्य विषयोंको बहिःकरण(श्रोत्र? नेत्र आदि) से जानता है और
बहिःकरणको अन्तःकरण(मन? बुद्धि आदि) से जानता है। उस अन्तःकरणकी चार वृत्तियाँ हैं -- मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार। इन चारोंमें भी अहंकार सबसे सूक्ष्म है? जो कि एकदेशीय है। यह अहंकार भी जिससे देखा जाता है? जाना जाता है? वह जाननेवाला प्रकाशस्वरूप क्षेत्रज्ञ है। उस अहंभावके भी ज्ञाता क्षेत्रज्ञको साक्षात् मेरा स्वरूप समझो। यहाँ विद्धि पद कहनेका तात्पर्य है कि हे अर्जुन जैसे तू अपनेको शरीरमें मानता है और
शरीरको अपना मानता है? ऐसे ही तू अपनेको मेरेमें जान (मान) और मेरेको अपना मन। कारण कि तुमने शरीरके साथ जो एकता मान रखी है? उसको छोड़नेके लिये मेरे साथ एकता माननी बहुत आवश्यक है।जैसे यहाँ भगवान्ने क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि पदोंसे क्षेत्रज्ञकी अपने साथ एकता बतायी है? ऐसे ही गीतामें अन्य जगह भी एकता बतायी है जैसे -- दूसरे अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें भगवान्ने शरीरी(क्षेत्रज्ञ)के लिये कहा कि जिससे यह सम्पूर्ण
संसार व्याप्त है? उसको तुम अविनाशी समझो -- अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् और नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें अपने लिये कहा कि मेरेसे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है -- मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। यहाँ तो भगवान्ने क्षेत्रज्ञ(अंश) की अपने (अंशीके) साथ एकता बतायी है और आगे इसी अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें शरीरसंसार(कार्य) की प्रकृति(कारण) के साथ एकता बतायेंगे। तात्पर्य है कि शरीर तो प्रकृतिका
अंश है? इसलिये तुम इससे सर्वथा विमुख हो जाओ और तुम मेरे अंश हो? इसलिये तुम मेरे सम्मुख हो जाओ।शरीरकी संसारके साथ स्वाभाविक एकता है। परन्तु यह जीव शरीरको संसारसे अलग मानकर उसके साथ ही अपनी एकता मान लेता है। परमात्माके साथ क्षेत्रज्ञकी स्वाभाविक एकता होते हुए भी शरीरके साथ माननेसे यह अपनेको परमात्मासे अलग मानता है। शरीरको संसारसे अलग मानना और अपनेको परमात्मासे अलग मानना -- ये दोनों ही गलत मान्यताएँ
हैं। अतः भगवान् यहाँ विद्धि पदसे आज्ञा देते हैं कि क्षेत्रज्ञ मेरे साथ एक है? ऐसा समझो। तात्पर्य है कि तुमने जहाँ शरीरके साथ अपनी एकता मान रखी है? वहीं मेरे साथ अपनी एकता मान लो? जो कि वास्तवमें है।शास्त्रोंमें प्रकृति? जीव और परमात्मा -- इन तीनोंका अलगअलग वर्णन आता है परन्तु यहाँ अपि पदसे भगवान् एक विलक्षण भावकी ओर लक्ष्य कराते हैं कि शास्त्रोंमें परमात्माके जिस सर्वव्यापक स्वरूपका वर्णन हुआ है?
वो तो मैं हूँ ही? इसके साथ ही सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञरूपसे पृथक्पृथक् दीखनेवाला भी मैं ही हूँ। अतः प्रस्तुत पदोंका यही भाव है कि क्षेत्रज्ञरूपसे परमात्मा ही है -- ऐसा जानकर साधक मेरे साथ अभिन्नताका अनुभव करे।स्वयं संसारसे भिन्न और परमात्मासे अभिन्न है। इसलिये यह नियम है कि संसारका ज्ञान तभी होता है? जब उससे सर्वथा भिन्नताका अनुभव किया जाय। तात्पर्य है कि संसारसे रागरहित होकर ही संसारके वास्तविक
स्वरूपको जाना जा सकता है। परन्तु परमात्माका ज्ञान उनसे अभिन्न होनेसे ही होता है। इसलिये परमात्माका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करानेके लिये भगवान् क्षेत्रज्ञके साथ अपनी अभिन्नता बता रहे हैं। इस अभिन्नताको यथार्थरूपसे जाननेपर परमात्माका वास्तविक ज्ञान हो जाता है।क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम -- क्षेत्र(शरीर) की सम्पूर्ण संसारके साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ(जीवात्मा) की मेरे साथ एकता है --
ऐसा जो क्षेत्रक्षेत्रज्ञका ज्ञान है? वही मेरे मतमें यथार्थ ज्ञान है।मतं मम कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें अनेक विद्याओंका? अनेक भाषाओँका? अनेक लिपियोंका? अनेक कलाओंका? तीनों लोक और चौदह भुवनोंका जो ज्ञान है? वह वास्तविक ज्ञान नहीं है। कारण कि वह ज्ञान सांसारिक व्यवहारमें काममें आनेवाला होते हुए भी संसारमें फँसानेवाला होनेसे अज्ञान ही है। वास्तविक ज्ञान तो वही है? जिससे स्वयंका शरीरसे सम्बन्धविच्छेद
हो जाय और फिर संसारमें जन्म न हो? संसारकी परतन्त्रता न हो। यही ज्ञान भगवान्के मतमें यथार्थ ज्ञान है। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके ज्ञानको ही अपने मतमें ज्ञान बताकर अब भगवान् क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागको सुननेकी आज्ञा देते हैं।