Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत्।स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु।।13.4।।

tat kṣhetraṁ yach cha yādṛik cha yad-vikāri yataśh cha yat sa cha yo yat-prabhāvaśh cha tat samāsena me śhṛiṇu

0:00 / 0:00

Word Meanings

tatthat
kṣhetramfield of activities
yatwhat
chaand
yādṛikits nature
chaand
yat-vikārihow change takes place in it
yataḥfrom what
chaalso
yatwhat
saḥhe
chaalso
yaḥwho
yat-prabhāvaḥwhat his powers are
chaand
tatthat
samāsenain summary
mefrom me
śhṛiṇulisten
•••

अनुवाद

।।13.4।।वह क्षेत्र जो है, जैसा है, जिन विकारोंवाला है और जिससे जो पैदा हुआ है; तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाववाला है, वह सब संक्षेपमें मेरेसे सुन।

•••

टीका

।।13.4।। व्याख्या --   तत्क्षेत्रम् -- तत् शब्द दोका वाचक होता है -- पहले कहे हुए विषयका और दूरीका। इसी अध्यायके पहले श्लोकमें जिसको इदम् पदसे कहा गया है? उसीको यहाँ तत् पदसे कहा है। क्षेत्र सब देशमें नहीं है? सब कालमें नहीं है और अभी भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है -- यह क्षेत्रकी (स्वयंसे) दूरी है।यच्च -- उस क्षेत्रका जो स्वरूप है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकमें हुआ है।यादृक् च -- उस

क्षेत्रका जैसा स्वभाव है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके छब्बीसवेंसत्ताईसवें श्लोकोंमें उसे उत्पन्न और नष्ट होनेवाला बताकर किया गया है।यद्विकारि -- यद्यपि प्रकृतिका कार्य होनेसे इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकमें आये तेईस तत्त्वोंको भी विकार कहा गया है? तथापि यहाँ उपर्युक्त पदसे क्षेत्रक्षेत्रज्ञके माने हुए सम्बन्धके कारण क्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाले इच्छाद्वेषादि विकारोंको ही विकार कहा गया है? जिनका वर्णन छठे

श्लोकमें हुआ है।यतश्च यत् -- यह क्षेत्र जिससे पैदा होता है अर्थात् प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले सात विकार और तीन गुण? जिनका वर्णन इसी अध्यायके उन्नीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें हुआ है।स च -- पहले श्लोकके उत्तरार्धमें जिस क्षेत्रज्ञका वर्णन हुआ है? उसी क्षेत्रज्ञका वाचक यहाँ सः पद है और उसीके विषयमें यहाँ सुननेके लिये कहा जा रहा है।यः -- इस क्षेत्रज्ञका जो स्वरूप है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके बीसवें

श्लोकके उत्तरार्धमें और बाईसवें श्लोकमें किया गया है।यत्प्रभावश्च -- वह क्षेत्रज्ञ जिस प्रभाववाला है जिसका वर्णन इसी अध्यायके इकतीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक किया गया है।तत्समासेन मे श्रृणु -- यहाँ तत् पदके अन्तर्गत क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ -- दोनोंको लेना चाहिये। तात्पर्य है कि वह क्षेत्र जो है? जैसा है? जिन विकारोंवाला और जिससे पैदा हुआ है -- इस तरह क्षेत्रके विषयमें चार बातें और वह क्षेत्रज्ञ जो है

और जिस प्रभाववाला है -- इस तरह क्षेत्रज्ञके विषयमें दो बातें तू मेरेसे संक्षेपमें सुन।यद्यपि इस अध्यायके आरम्भमें पहले दो श्लोकोंमें क्षेत्रक्षेत्रज्ञका सूत्ररूपसे वर्णन हुआ है? जिसको भगवान्ने,ज्ञान भी कहा है तथापि क्षेत्रक्षेत्रज्ञके विभागका स्पष्टरूपसे विवेचन (विकारसहित क्षेत्र और निर्विकार क्षेत्रज्ञके स्वरूपका प्रभावसहित विवेचन) इस तीसरे श्लोकसे आरम्भ किया गया है। इसलिये भगवान् इसको सावधान होकर

सुननेकी आज्ञा देते हैं।इस श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रके विषयमें तो चार बातें सुननेकी आज्ञा दी है? पर क्षेत्रज्ञके विषयमें केवल दो बातें -- स्वरूप और प्रभाव ही सुननेकी आज्ञा दी है। इससे यह शङ्का हो सकती है कि क्षेत्रका प्रभाव भी क्यों नहीं कहा गया और साथ ही क्षेत्रज्ञके स्वभाव? विकार और जिससे जो पैदा हुआ -- इन विषयोंपर भी क्यों नहीं कहा गया इसका समाधान यह है कि एक क्षण भी एक रूपमें स्थिर न रहनेवाले क्षेत्रका

प्रभाव हो ही क्या सकता है प्रकृतिस्थ (संसारी) पुरुषके अन्तःकरणमें धनादि जड पदार्थोंका महत्त्व रहता है? इसीलिये उसको संसारमें क्षेत्रका (धनादि जड पदार्थोंका) प्रभाव दीखता है। वास्तवमें स्वतन्त्ररूपसे क्षेत्रका कुछ भी प्रभाव नहीं है। अतः उसके प्रभावका कोई वर्णन नहीं किया गया।क्षेत्रज्ञका स्वरूप उत्पत्तिविनाशरहित है? इसलिये उसका स्वभाव भी उत्पत्तिविनाशरहित है। अतः भगवान्ने उसके स्वभावका अलगसे वर्णन न

करके स्वरूपके अन्तर्गत ही कर दिया। क्षेत्रके साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही क्षेत्रज्ञमें इच्छाद्वेषादि विकारोंकी प्रतीति होती है? अन्यथा क्षेत्रज्ञ (स्वरूपतः) सर्वथा निर्विकार ही है। अतः निर्विकार क्षेत्रज्ञके विकारोंका वर्णन सम्भव ही नहीं। क्षेत्रज्ञ अद्वितीय? अनादि और नित्य है। अतः इसके विषयमें कौन किससे पैदा हुआ -- यह प्रश्न ही नहीं बनता। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें जिसको संक्षेपसे सुननेके लिये कहा गया है? उसका विस्तारसे वर्णन कहाँ हुआ है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।