।।13.5।।

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्िचतैः।।13.5।।

ṛiṣhibhir bahudhā gītaṁ chhandobhir vividhaiḥ pṛithak brahma-sūtra-padaiśh chaiva hetumadbhir viniśhchitaiḥ

ṛiṣhibhiḥ—by great sages; bahudhā—in manifold ways; gītam—sung; chhandobhiḥ—in Vedic hymns; vividhaiḥ—various; pṛithak—variously; brahma-sūtra—the Brahma Sūtra; padaiḥ—by the hymns; cha—and; eva—especially; hetu-madbhiḥ—with logic; viniśhchitaiḥ—conclusive evidence

अनुवाद

।।13.5।।(यह क्षेत्रक्षेत्रज्ञका तत्त्व) ऋषियोंके द्वारा बहुत विस्तारसे कहा गया है तथा वेदोंकी ऋचाओं-द्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है और युक्तियुक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्रके पदोंद्वारा भी कहा गया है।

टीका

।।13.5।। व्याख्या --   ऋषिभिर्बहुधा गीतम् -- वैदिक मन्त्रोंके द्रष्टा तथा शास्त्रों? स्मृतियों और पुराणोंके रचयिता ऋषियोंने अपनेअपने (शास्त्र? स्मृति आदि) ग्रन्थोंमें जडचेतन? सत्असत्? शरीरशरीरी? देहदेही? नित्यअनित्य आदि शब्दोंसे क्षेत्रक्षेत्रज्ञका बहुत विस्तारसे वर्णन किया है।छन्दोभिर्विविधैः पृथक् -- यहाँ विविधैः विशेषणसहित छन्दोभिः पद ऋक? यजुः? साम और अथर्व -- इन चारों वेदोंके संहिता और ब्राह्मण

भागोंके मन्त्रोंका वाचक है। इन्हींके अन्तर्गत सम्पूर्ण उपनिषद् और भिन्नभिन्न शाखाओंको भी समझ लेना चाहिये। इनमें क्षेत्रक्षेत्रज्ञका अलगअलग वर्णन किया गया है।ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः -- अनेक युक्तियोंसे युक्त तथा अच्छी तरहसे निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्रके पदोंद्वारा भी क्षेत्रक्षेत्रज्ञके तत्त्वका वर्णन किया गया है।इस श्लोकमें भगवान्का आशय यह मालूम देता है कि क्षेत्रक्षेत्रज्ञका

जो संक्षेपसे वर्णन मैं कर रहा हूँ? उसे अगर कोई विस्तारसे देखना चाहे तो वह उपर्युक्त ग्रन्थोंमें देख सकता है। सम्बन्ध --   तीसरे श्लोकमें क्षेत्रक्षेत्रज्ञके विषयमें जिन छः बातोंको संक्षेपसे सुननेकी आज्ञा दी थी? उनमेंसे क्षेत्रकी दो बातोंका अर्थात् उसके स्वरूप और विकारोंका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।