।।14.18।।

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।14.18।।

ūrdhvaṁ gachchhanti sattva-sthā madhye tiṣhṭhanti rājasāḥ jaghanya-guṇa-vṛitti-sthā adho gachchhanti tāmasāḥ

ūrdhvam—upward; gachchhanti—rise; sattva-sthāḥ—those situated in the mode of goodness; madhye—in the middle; tiṣhṭhanti—stay; rājasāḥ—those in the mode of passion; jaghanya—abominable; guṇa—quality; vṛitti-sthāḥ—engaged in activities; adhaḥ—down; gachchhanti—go; tāmasāḥ—those in the mode of ignorance

अनुवाद

।।14.18।।सत्त्वगुणमें स्थित मनुष्य ऊर्ध्वलोकोंमें जाते हैं, रजोगुणमें स्थित मनुष्य मृत्युलोकमें जन्म लेते हैं और निन्दनीय तमोगुणकी वृत्तिमें स्थित मनुष्य अधोगतिमें जाते हैं।

टीका

।।14.18।। व्याख्या --   ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः -- जिनके जीवनमें सत्त्वगुणकी प्रधानता रही है और उसके कारण जिन्होंने भोगोंसे संयम किया है तीर्थ? व्रत? दान आदि शुभकर्म किये हैं दूसरोंके सुखआरामके लिये प्याऊ? अन्नक्षेत्र आदि चलाये हैं सड़कें बनवायी हैं पशुपक्षियोंकी सुखसुविधाके लिये पेड़पौधे लगाये हैं गौशालाएँ बनवायी हैं? उन मनुष्योंको यहाँ सत्त्वस्थाः कहा गया है। जब सत्त्वगुणकी प्रधानतामें ही

ऐसे मनुष्योंका शरीर छूट जाता है? तब वे सत्त्वगुणका सङ्ग होनेसे? सत्त्वगुणमें आसक्ति होनेसे स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें चले जाते हैं। उन लोकोंका वर्णन इसी अध्यायके चौदहवें श्लोकमें उत्तमविदां अमलान् लोकान् पदोंसे किया गया है। ऊर्ध्वलोकोंमें जानेवाले मनुष्योंको तेजस्तत्त्वप्रधान शरीरकी प्राप्ति होती है।मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः -- जिन मनुष्योंके जीवनमें रजोगुणकी प्रधानता होती है और उसके कारण जो शास्त्रकी

मर्यादामें रहते हुए भी संग्रह करना और भोग भोगना ऐशआराम करना पदार्थोंमें ममता? आसक्ति रखना आदिमें लगे रहते हैं? उनको यहाँ राजसाः कहा गया है। जब रजोगुणकी प्रधानतामें ही अर्थात् रजोगुणके कार्योंके चिन्तनमें ही ऐसे मनुष्योंका शरीर छूट जाता है? तब वे पुनः इस मृत्युलोकमें ही जन्म लेते हैं। यहाँ उनको पृथ्वीतत्त्वप्रधान मनुष्यशरीरकी प्राप्ति होती है।यहाँ तिष्ठन्ति पद देनेका तात्पर्य है कि वे राजस मनुष्य अभी

जैसे इस मृत्युलोकमें हैं? मरनेके बाद वे पुनः मृत्युलोकमें आकर ऐसे ही बन जाते हैं अर्थात् जैसे पहले थे? वैसे ही बन जाते हैं। वे अशुद्ध आचरण नहीं करते? शास्त्रकी मर्यादा भङ्ग नहीं करते? प्रत्युत शास्त्रकी मर्यादामें ही रहते हैं और शुद्ध आचरण करते हैं,परन्तु पदार्थों? व्यक्तियों आदिमें राग? आसक्ति? ममता रहनेके कारण वे पुनः मृत्युलोकमें ही जन्म लेते हैं।जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः -- जिन मनुष्योंके

जीवनमें तमोगुणकी प्रधानता रहती है और उसके कारण जिन्होंने प्रमाद आदिके वशमें होकर निरर्थक पैसा और समय बरबाद किया है जो आलस्य तथा नींदमें ही पड़े रहे हैं आवश्यक कार्योंको भी जिन्होंने समयपर नहीं किया है जो दूसरोंका अहित ही सोचते आये हैं जिन्होंने दूसरोंका अहित किया है? दूसरोंको दुःख दिया है जिन्होंने झूठ? कपट? चोरी? डकैती आदि निन्दनीय कर्म किये हैं? ऐसे मनुष्योंको यहाँ जघन्यगुणवृत्तिस्थाः कहा गया है।

जब तमोगुणकी प्रधानतामें ही अर्थात् तमोगुणके कार्योंके चिन्तनमें ही ऐसे मनुष्य मर जाते हैं? तब वे अधोगतिमें चले जाते हैं।अधोगतिके दो भेद हैं -- योनिविशेष और स्थानविशेष। पशु? पक्षी? कीट? पतङ्ग? साँप? बिच्छू? भूतप्रेत आदि योनिविशेष अधिगति हैं और वैतरिणी? असिपत्र? लालाभक्ष? कुम्भीपाक? रौरव? महारौरव आदि नरकके कुण्ड स्थानविशेष अधोगति है। जिनके जीवनमें सत्त्वगुण अथवा रजोगुण रहते हुए भी अन्तसमयमें तात्कालिक

तमोगुण बढ़ जाता है? वे मनुष्य मरनेके बाद योनिविशेष अधोगतिमें अर्थात् मूढ़योनियोंमें चले जाते हैं (गीता 14। 15)। जिनके जीवनमें तमोगुणकी प्रधानता रही है और उसी तमोगुणकी प्रधानतामें जिनका शरीर छूट जाता है? वे मनुष्य मरनेके बाद स्थानविशेष अधोगतिमें अर्थात् नरकोंमें चले जाते हैं (गीता 16। 16)। तात्पर्य यह हुआ कि सात्त्विक? राजस अथवा तामस मनुष्यका अन्तिम चिन्तन और हो जानेसे उनकी गति तो अन्तिम चिन्तनके अनुसार

ही होगी? पर सुखदुःखका भोग उनके कर्मोंके अनुसार ही होगा। जैसे -- कर्म तो अच्छे हैं? पर अन्तिम चिन्तन कुत्तेका हो गया? तो अन्तिम चिन्तनके अनुसार वह कुत्ता बन जायगा परन्तु उस योनिमें भी उसको कर्मोंके अनुसार बहुत सुखआराम मिलेगा। कर्म तो बुरे हैं? पर अन्तिम चिन्तन मनुष्य आदिका हो गया? तो अन्तिम चिन्तनके अनुसार वह मनुष्य बन जायगा परन्तु उसको कर्मोंके फलरूपमें भयंकर परिस्थिति मिलेगी। उसके शरीरमें रोगहीरोग

रहेंगे। खानेके लिये अन्न? पीनेके लिये जल और पहननेके लिये कपड़ा भी कठिनाईसे मिलेगा।सात्त्विक गुणको बढ़ानेके लिये साधक सत्शास्त्रोंके पढ़नेमें लगा रहे। खानापीना भी सात्त्विक करे? राजसतामस खानपान न करे। सात्त्विक श्रेष्ठ मनुष्योंका ही सङ्ग करे? उन्हींके सान्निध्यमें रहे? उनके कहे अनुसार साधन करे। शुद्ध? पवित्र तीर्थ आदि स्थानोंका सेवन करे जहाँ कोलाहल होता हो? ऐसे राजस स्थानोंका और जहाँ अण्डा? माँस? मदिरा

बिकती हो? ऐसे तामस स्थानोंका सेवन न करे। प्रातःकाल और सायंकालका समय सात्त्विक माना जाता है अतः इस सात्त्विक समयका विशेषतासे सदुपयोग करे अर्थात् इसे भजन? ध्यान आदिमें लगाये। शास्त्रविहित शुभकर्म ही करे? निषिद्ध कर्म कभी न करे राजसतामस कर्म कभी न करे। जो जिस वर्ण? आश्रममें स्थित है? उसीमें अपनेअपने कर्तव्यका ठीक तरहसे पालन करे। ध्यान भगवान्का ही करे। मन्त्र भी सात्त्विक ही जपे। इस प्रकार सब कुछ सात्त्विक

करनेसे पुराने संस्कार मिट जाते हैं और सात्त्विक संसार (सत्त्वगुण) बढ़ जाते हैं। श्रीमद्भागवतमें गुणोंको बढ़ानेवाले दस हेतु बताये गये हैं -- आगमोऽपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च।ध्यानं मन्त्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः।।(11। 13। 4)शास्त्र? जल (खानपान)? प्रजा (सङ्ग)? स्थान? समय? कर्म? जन्म? ध्यान? मन्त्र और संस्कार -- ये दस वस्तुएँ यदि सात्त्विक हों तो सत्त्वगुणकी? राजसी हों तो रजोगुणकी और तामसी हों

तो तमोगुणकी वृद्धि करती हैं।विशेष बातअन्तसमयमें रजोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मरनेवाला मनुष्य मनुष्यलोकमें जन्म लेता है (14। 15) और रजोगुणकी प्रधानतावाला मनुष्य मरकर फिर इस मनुष्यलोकमें ही आता है (14। 18) -- इन दोनों बातोंसे यही सिद्ध होता है कि इस मनुष्यलोकके सभी मनुष्य रजोगुणवाले ही होते हैं सत्त्वगुण और तमोगुण इनमें नहीं होता। अगर वास्तवमें ऐसी बात है? तो फिर सत्त्वगुणकी तात्कालिक वृत्तिके

बढ़नेपर मरनेवाला (14। 14) और सत्त्वगुणमें स्थित रहनेवाला मनुष्य ऊँचे लोकोंमें जाता है (14। 18) तथा तमोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मरनेवाला (14। 15) और तमोगुणमें स्थित रहनेवाला मनुष्य अधोगतिमें जाता है (14। 18) सत्त्व? रज और तम -- ये तीनों गुण अविनाशी देहीको देहमें बाँध देते हैं (14। 5) यह सारा संसार तीनों गुणोंसे मोहित है (7। 13) सात्त्विक? राजस और तामस -- ये तीन प्रकारके कर्ता कहे जाते हैं (18।

26 -- 28) यह सम्पूर्ण त्रिलोकी त्रिगुणात्मक है (18। 40)? आदि बातें भगवान्ने कैसी कही हैंइस शङ्का समाधान यह है कि ऊर्ध्वगतिमें सत्त्वगुणकी प्रधनाता तो है? पर साथमें रजोगुणतमोगुण भी रहते हैं। इसलिये देवताओंके भी सात्त्विक? राजस और तामस स्वभाव होते हैं। अतः सत्त्वगुणकी प्रधानता होनेपर भी उसमें अवान्तर भेद रहते हैं। ऐसे ही मध्यगतिमें रजोगुणकी प्रधानता होनेपर भी साथमें सत्त्वगुणतमोगुण रहते हैं। इसलिये

मनुष्योंके भी सात्त्विक? राजस और तामस स्वभाव होते हैं। अधोगतिमें तमोगुणकी प्रधानता है? पर साथमें सत्त्वगुणरजोगुण भी रहते हैं। इसलिये पशु? पक्षी आदिमें तथा भूत? प्रेत? गुह्यक आदिमें और नरकोंके प्राणियोंमें भी भिन्नभिन्न स्वभाव होता है। कई सौम्य स्वभावके होते हैं? कई मध्यम स्वभावके होते हैं और कई क्रूर स्वभावके होते हैं। तात्पर्य है कि जहाँ किसी भी गुणके साथ सम्बन्ध है? वहाँ तीनों गुण रहेंगे ही। इसलिये

भगवान्ने (18। 40 में) कहा है कि त्रिलोकीमें ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है? जो तीनों गुणोंसे रहित हो।ऊर्ध्वगतिमें सत्त्वगुणकी प्रधानता? रजोगुणकी गौणता और तमोगुणकी अत्यन्त गौणता रहती है। मध्यगतिमें रजोगुणकी प्रधानता? सत्त्वगुणकी गौणता और तमोगुणकी अत्यन्त गौणता रहती है। अधोगतिमें तमोगुणकी प्रधानता? रजोगुणकी गौणता और सत्त्वगुणकी अत्यन्त गौणती रहती है। तात्पर्य है कि सत्त्व? रज और तम -- तीनों गुणोंकी प्रधानतावालोंमें

भी अधिक? मध्यम और कनिष्ठमात्रामें प्रत्येक गुण रहता है। इस तरह गुणोंके सैकड़ोहजारों सूक्ष्म भेद हो जाते हैं। अतः गुणोंके तारतम्यसे प्रत्येक प्राणीका अलगअलग स्वभाव होता है।जैसे भगवान्के द्वारा सात्त्विक? राजस और तामस कार्य होते हुए भी वे गुणातीत ही रहते हैं (7। 13)? ऐसे ही गुणातीत महापुरुषके अपने कहलानेवाले अन्तःकरणमें सात्त्विक? राजस और तामस वृत्तियोंके आनेपर भी वह गुणातीत ही रहता है (14। 22)। अतः

भगवान्की उपासना करना और गुणातीत महापुरुषका सङ्ग करना -- ये दोनों ही निर्गुण होनेसे साधकको गुणातीत करनेवाले हैं। सम्बन्ध --   पाँचवेंसे अठारहवें श्लोकतक प्रकृतिके कार्य गुणोंका परिचय देकर अब आगेके दो श्लोकोंमें स्वयंको तीनों गुणोंसे अतीत अनुभव करनेका वर्णन करते हैं।