अध्याय 15: पुरुषोत्तम योग

सर्वोच्च दिव्य स्वरूप योग 20 वर्सेज

पिछले अध्याय में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया था कि प्राकृत शक्ति के तीन गुणों से गुणातीत होकर ही कोई अपने दिव्य लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। उन्होंने यह भी प्रकट किया था कि इन गुणों से परे जाने का सबसे उत्तम उपाय भगवान की अनन्य भक्ति में तल्लीन होना है। ऐसी भक्ति में तल्लीन होने के लिए हमें मन को संसार से विरक्त कर उसे केवल भगवान में अनुरक्त करना होगा। इसलिए संसार की प्रकृति को समझना अति आवश्यक है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन की संसार के प्रति विरक्ति विकसित करने में उसकी सहायतार्थ उसे भौतिक संसार की प्रकृति को प्रतीकात्मक शैली में समझाते हैं। वे भौतिक संसार की तुलना ऊपर से नीचे 'अश्वत्थ' बरगद के वृक्ष से करते हैं। देहधारी आत्मा इस वृक्ष की उत्पत्ति के स्रोत और यह कब से अस्तित्व में है और कैसे बढ़ रहा है, को समझे बिना एक जन्म से दूसरे जन्म में इस वृक्ष की शाखाओं के ऊपर नीचे घूमती रहती है। इस वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर होती हैं क्योंकि इसका स्रोत भगवान में है। वेदों में वर्णित सकाम कर्मफल इसके पत्तों के समान हैं। इस वृक्ष को प्राकृत शक्ति के तीनों गुणों से सींचा जाता है। ये गुण इन्द्रिय विषयों को जन्म देते हैं जोकि वृक्ष की ऊपर लगी कोंपलों के समान हैं। कोंपलों से वायवीय जड़ें फूट कर प्रसारित होती हैं जिससे वृक्ष और अधिक विकसित होता है। इस अध्याय में इस प्रतीकात्मकता को विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है जिससे कि यह ज्ञात हो सके कि कैसे देहधारी आत्मा इस वृक्ष के भौतिक अस्तित्व की प्रकृति की अज्ञानता के कारण निरंतर संसार के बंधनो में फंसी रहकर भौतिक जगत के कष्ट सहन कर रही है। इसलिए श्रीकृष्ण समझाते हैं कि विरक्ति की कुल्हाड़ी से इस वृक्ष को काट डालना चाहिए। तब फिर हमें वृक्ष के आधार की खोज करनी चाहिए जोकि स्वयं परमेश्वर हैं। परम स्रोत भगवान को खोजकर हमें इस अध्याय में वर्णित पद्धति के अनुसार उनकी शरणागति ग्रहण करनी होगी और तभी हम भगवान के दिव्य लोक को पा सकेंगे जहाँ से हम पुनः इस लौकिक संसार में नहीं लौटेंगे। श्रीकृष्ण आगे वर्णन करते हैं कि उनका अभिन्न अंश होने के कारण इस संसार में जीवात्माएँ किस प्रकार से दिव्य हैं किन्तु माया शक्ति के बंधन के कारण वे मन सहित छह इन्द्रियों के साथ संघर्ष करती रहती हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि आत्मा दिव्य है किन्तु फिर भी वह किस प्रकार से इन्द्रिय विषयों के भोग का आनंद लेती है। श्रीकृष्ण यह भी बताते हैं कि मृत्यु होने पर आत्मा अपने वर्तमान जीवन के मन और सूक्ष्म इन्द्रियों सहित किस प्रकार से नये शरीर में देहान्तरण करती है। अज्ञानी न तो शरीर में आत्मा की उपस्थिति को अनुभव करते हैं और न ही मृत्यु होने पर उन्हें आत्मा के देह को त्यागने का आभास होता है किन्तु योगी ज्ञान चक्षुओं और मन की शुद्धता के साथ इसका अनुभव करते हैं। इसी प्रकार से भगवान भी अपनी सृष्टि में व्याप्त हैं लेकिन ज्ञान चक्षुओं से ही उनकी उपस्थिति को अनुभव किया जा सकता है। यहाँ श्रीकृष्ण प्रकट करते हैं कि संसार में भगवान के अस्तित्व को और उनकी अनन्त महिमा को जो सर्वत्र प्रकाशित है, कैसे जान सकते हैं। इस अध्याय का समापन क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम शब्दों की व्याख्या के साथ होता है। क्षर भौतिक जगत की नश्वर वस्तुएँ हैं। अक्षर भगवान के लोक में निवास करने वाली मुक्त आत्माएँ हैं। पुरुषोत्तम का अर्थ दिव्य सर्वोच्च व्यक्तित्व है जो संसार का नियामक और निर्वाहक है। वह विनाशकारी और अविनाशी पदार्थों से परे है। हमें अपना सर्वस्व उस पर न्योछावर करते हुए उसकी आराधना करनी चाहिए।

भगवद गीता अध्याय 15: पुरुषोत्तम योग