।।15.12।।

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।15.12।।

yad āditya-gataṁ tejo jagad bhāsayate ’khilam yach chandramasi yach chāgnau tat tejo viddhi māmakam

yat—which; āditya-gatam—in the sun; tejaḥ—brilliance; jagat—solar system; bhāsayate—illuminates; akhilam—entire; yat—which; chandramasi—in the moon; yat—which; cha—also; agnau—in the fire; tat—that; tejaḥ—brightness; viddhi—know; māmakam—mine

अनुवाद

।।15.12।।सूर्यमें आया हुआ जो तेज सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है और जो तेज चन्द्रमामें है तथा जो तेज अग्निमें है, उस तेजको मेरा ही जान।

टीका

।।15.12।। व्याख्या --   [प्रभाव और महत्त्वकी ओर आकर्षित होना जीवका स्वभाव है। प्राकृत पदार्थोंके सम्बन्धसे जीव प्राकृत पदार्थोंके प्रभावसे प्रभावित हो जाता है। कारण यह है कि प्रकृतिमें स्थित होनेके कारण जीवको प्राकृत पदार्थों(शरीर? स्त्री? पुत्र? धन आदि) का महत्त्व दीखने लगता है? भगवान्का नहीं। अतः जीवपर पड़े प्राकृत पदार्थोंका प्रभाव हटानेके लिये भगवान् अपने प्रभावका वर्णन करते हुए यह रहस्य प्रकट

करते हैं कि उन प्राकृत पदार्थोंमें जो प्रभाव और महत्त्व देखनेमें आता है? वह वस्तुतः (मूलमें) मेरा ही है? उनका नहीं। सर्वोपरि प्रभावशाली मैं ही हूँ। मेरे ही प्रकाशसे सब प्रकाशित हो रहे हैं।]यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् -- जैसे भगवान्ने (गीता 2। 55में ) कामनाओंको मनोगतान् बताया है? ऐसे ही यहाँ तेजको आदित्यगतम् बताते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे मनमें स्थित कामनाएँ मनका धर्म या स्वरूप न होकर आगन्तुक

हैं? ऐसे ही सूर्यमें स्थित तेज सूर्यका धर्म या स्वरूप न होकर आगन्तुक है अर्थात् वह तेज सूर्यका अपना न होकर (भगवान्से) आया हुआ है।सूर्यका तेज (प्रकाश) इतना महान् है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उससे प्रकाशित होता है। ऐसा वह तेज सूर्यका दीखनेपर भी वास्तवमें भगवान्का ही है। इसलिये सूर्य भगवान्को यहा उनके परमधामको प्रकाशित नहीं कर सकता। महर्षि पतञ्जलि कहते हैं -- पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।।(योगदर्शन

1। 26)ईश्वर सबके पूर्वजोंका भी गुरु है क्योंकि उसका कालसे अवच्छेद नहीं है। सम्पूर्ण भौतिक जगत्में सूर्यके समान प्रत्यक्ष प्रभावशाली पदार्थ कोई नहीं है। चन्द्र? अग्नि? तारे? विद्युत् आदि जितने भी प्रकाशमान पदार्थ हैं? वे सभी सूर्यसे ही प्रकाश पाते हैं। भगवान्से मिले हुए तेजके कारण जब सूर्य इतना विलक्षण और प्रभावशाली है? तब स्वयं भगवान् कितने विलक्षण और प्रभावशाली होंगे ऐसा विचार करनेपर स्वतः भगवान्की

तरफ आकर्षण होता है।सूर्य नेत्रोंका अधिष्ठातृदेवता है। अतः नेत्रोंमें जो प्रकाश (देखनेकी शक्ति) है वह भी परम्परासे भगवान्से ही आयी हुई समझनी चाहिये।यच्चन्द्रमसि -- जैसे सूर्यमें स्थित प्रकाशिका शक्ति और दाहिका शक्ति -- दोनों ही भगवान्से प्राप्त (आगत) हैं? ऐसे ही चन्द्रमाकी प्रकाशिका शक्ति और पोषण शक्ति -- दोनों (सूर्यद्वारा प्राप्त होनेपर भी परम्परासे) भगवत्प्रदत्त ही हैं। जैसे भगवान्का तेज आदित्यगत

है? ऐसे ही उनका तेज चन्द्रगत भी समझना चाहिये। चन्द्रमामें प्रकाशके साथ शीतलता? मधुरता? पोषणता आदि जो भी गुण हैं? वह सब भगवान्का ही प्रभाव है।यहाँ चन्द्रमाको तारे? नक्षत्र आदिका भी उपलक्षण समझना चाहिये।चन्द्रमा मन का अधिष्ठातृदेवता है। अतः मनमें जो प्रकाश (मनन करनेकी शक्ति) है? वह भी परम्परासे भगवान्से ही आयी हुई समझनी चाहिये।यच्चाग्नौ -- जैसे भगवान्का तेज आदित्यगत है? ऐसे ही उनका तेज अग्निगत भी समझना

चाहिये। तात्पर्य यह है कि अग्निकी प्रकाशिका शक्ति और दाहिका शक्ति -- दोनों भगवान्की ही हैं? अग्निकी नहीं।यहाँ अग्निको विद्युत्? दीपक? जुगनू आदिका भी उपलक्षण समझना चाहिये।अग्नि वाणीका अधिष्ठातृदेवता है। अतः वाणीमें जो प्रकाश (अर्थप्रकाश करनेकी शक्ति) है? वह भी परम्परासे भगवान्से ही आयी हुई समझनी चाहिये।तत्तेजो विद्धि मामकम् -- जो तेज सूर्य? चन्द्रमा और अग्निमें है और जो तेज इन तीनोंके प्रकाशसे प्रकाशित

अन्य पदार्थों (तारे? नक्षत्र? विद्युत्? जुगनू आदि) में देखने तथा सुननेमें आता है? उसे भगवान्का ही तेज समझना चाहिये।उपर्युक्त पदोंसे भगवान् यह कह रहे हैं कि मनुष्य जिसजिस तेजस्वी पदार्थकी तरफ आकर्षित होता है? उसउस पदार्थमें उसको मेरा ही प्रभाव देखना चाहिये (गीता 10। 41)। जैसे बूँदीके लड्डूमें जो मिठास है? वह उसकी अपनी न होकर चीनीकी ही है? ऐसे ही सूर्य? चन्द्रमा और अग्निमें जो तेज है? वह उनका अपना न

होकर भगवान्का ही है। भगवान्के प्रकाशसे ही यह सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है -- तस्य भासा सर्वमिदं विभाति (कठोपनिषद् 2। 2। 15)। वह सम्पूर्ण ज्योतियोंकी भी ज्योति है -- ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः (गीता 13। 17)।सूर्य? चन्द्रमा और अग्नि क्रमशः नेत्र? मन और वाणीके अधिष्ठाता एवं उनको प्रकाशित करनेवाले हैं। मनुष्य अपने भावोंको प्रकट करने और समझनेके लिये नेत्र? मन (अन्तःकरण) और वाणी -- इन तीन इन्द्रियोंका ही

उपयोग करता है। ये तीन इन्द्रियाँ जितना प्रकाश करतीं हैं? उतना प्रकाश अन्य इन्द्रियाँ नहीं करतीं। प्रकाशका तात्पर्य है -- अलगअलग ज्ञान कराना। नेत्र और वाणी बाहरी करण हैं तथा मन भीतरी करण है। करणोंके द्वारा वस्तुका ज्ञान होता है। ये तीनों ही करण (इन्द्रियाँ) भगवान्को प्रकाशित नहीं कर सकते क्योंकि इनमें जो तेज या प्रकाश है? वह इनका अपना न होकर भगवान्का ही है। सम्बन्ध --   दृश्य (दीखनेवाले) पदार्थोंमें अपना प्रभाव बतानेके बाद अब भगवान् आगेके श्लोकमें जिस शक्तिसे समष्टिजगत्में क्रियाएँ हो रही हैं? उस समष्टिशक्तिमें अपना प्रभाव प्रकट करते हैं।