।।15.18।।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।15.18।।
yasmāt kṣharam atīto ’ham akṣharād api chottamaḥ ato ’smi loke vede cha prathitaḥ puruṣhottamaḥ
yasmāt—hence; kṣharam—to the perishable; atītaḥ—transcendental; aham—I; akṣharāt—to the imperishable; api—even; cha—and; uttamaḥ—transcendental; ataḥ—therefore; asmi—I am; loke—in the world; vede—in the Vedas; cha—and; prathitaḥ—celebrated; puruṣha-uttamaḥ—as the Supreme Divine Personality
अनुवाद
।।15.18।।मैं क्षरसे अतीत हूँ और अक्षरसे भी उत्तम हूँ, इसलिये लोकमें और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ।
टीका
।।15.18।। व्याख्या -- यस्मात्क्षरमतीतोऽहम् -- इन पदोंमें भगवान्का यह भाव है कि क्षर (प्रकृति) प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और मैं नित्यनिरन्तर निर्विकाररूपसे ज्योंकात्यों रहनेवाला हूँ। इसलिये मैं क्षरसे सर्वथा अतीत हूँ।शरीरसे पर (व्यापक? श्रेष्ठ? प्रकाशक? सबल? सूक्ष्म) इन्द्रियाँ हैं? इन्द्रियोंसे पर मन है और मनसे पर बुद्धि है (गीता 3। 42)। इस प्रकार एकदूसरेसे पर होते हुए भी शरीर? इन्द्रियाँ? मन और
बुद्धि एक ही जातिके? जड हैं। परन्तु परमात्मतत्त्व इनसे भी अत्यन्त पर है क्योंकि वह जड नहीं है? प्रत्युत चेतन है।अक्षरादपि चोत्तमः -- यद्यपि परमात्माका अंश होनेके कारण जीवात्मा(अक्षर) की परमात्मासे तात्त्विक एकता है? तथापि यहाँ भगवान् अपनेको जीवात्मासे भी उत्तम बताते हैं। इसके कारण ये हैं -- (1) परमात्माका अंश होनेपर भी जीवात्मा क्षर(जड प्रकृति) के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है (गीता 15। 7) और प्रकृतिके
गुणोंसे मोहित हो जाता है? जबकि परमात्मा (प्रकृतिसे अतीत होनेके कारण) कभी मोहित नहीं होते (गीता 7।13)। (2) परमात्मा प्रकृतिको अपने अधीन करके लोकमें आते? अवतार लेते हैं (गीता 4। 6)? जबकि जीवात्मा प्रकृतिके वशमें होकर लोकमें आता है (गीता 8। 19)। (3) परमात्मा सदैव निर्लिप्त रहते हैं? (गीता 4। 14 9। 9)? जबकि जीवात्माको निर्लिप्त होनेके लिये साधन करना पड़ता है (गीता 4। 18 7। 14)।भगवान्द्वारा अपनेको क्षरसे
अतीत और अक्षरसे उत्तम बतानेसे यह भाव भी प्रकट होता है कि क्षर और अक्षर -- दोनोंमें भिन्नता है। यदि उन दोनोंमें भिन्नता न होती? तो भगवान् अपनेको या तो उन दोनोंसे ही अतीत बताते या दोनोंसे ही उत्तम बताते। अतः यह सिद्ध होता है कि जैसे भगवान् क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम हैं? ऐसे ही अक्षर भी क्षरसे अतीत और उत्तम है।अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः -- यहाँ लोके पदका अर्थ है -- पुराण? स्मृति आदि
शास्त्र। शास्त्रोंमें भगवान् पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हैं।शुद्ध ज्ञानका नाम वेद है? जो अनादि है। वही ज्ञान आनुपूर्वीरूपसे ऋक्? यजुः आदि वेदोंके रूपसे प्रकट हुआ है। वेदोंमें भी भगवान् पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हैं।पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा था कि क्षर और अक्षर -- दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है। वह उत्तम पुरुष कौन है -- इसको बताते हुए भगवान् यह रहस्य प्रकट करते हैं कि वह उत्तम पुरुष -- पुरुषोत्तम
मैं ही हूँ।विशेष बात(1) भौतिक सृष्टिमात्र क्षर (नाशवान्) है और परमात्माका सनातन अंश जीवात्मा अक्षर (अविनाशी) है। क्षरसे अतीत और उत्तम होनेपर भी अक्षरने क्षरसे अपना सम्बन्ध मान लिया -- इससे बढ़कर और कोई दोष? भूल या गलती है ही नहीं। क्षरके साथ यह सम्बन्ध केवल माना हुआ है? वास्तवमें एक क्षण भी रहनेवाला नहीं है। जैसे बाल्यावस्थासे अबतक शरीर बिलकुल बदल गया? फिर भी हम कहते हैं कि मैं वही हूँ। यह भी हम नहीं
बता सकते कि अमुक दिन बाल्यावस्था खत्म हुई और युवावस्था शुरू हुई। कारण कि नदीके प्रवाहकी तरह शरीर निरन्तर ही बहता रहता है? जब कि अक्षर (जीवात्मा) नदीमें स्थित शिला(चट्टान) की तरह सदा अचल और असङ्ग रहता है। यदि अक्षर भी क्षरकी तरह निरन्तर परिवर्तनशील और नाशवान् होता तो इसकी आफत मिट जाती। परन्तु स्वयं (अक्षर) अपरिवर्तनशील और अविनाशी होते हुए भी निरन्तर परिवर्तनशील और नाशवान् क्षरको पकड़ लेता है -- उसको
अपना मान लेता है। होता यह है कि अक्षर क्षरको छोड़ता नहीं और क्षर एक क्षण भी ठहरता नहीं। इस आफतको मिटानेका सुगम उपाय है -- क्षर(शरीरादि) को क्षर(संसार) की ही सेवामें लगा दिया जाय -- उसको संसाररूपी वाटिकाकी खाद बना दी जाय।मनुष्यको शरीरादि नाशवान् पदार्थ अधिकार करने अथवा अपना माननेके लिये नहीं मिले हैं? प्रत्युत सेवा करनेके लिये ही मिले हैं। इन पदार्थोंके द्वारा दूसरोंकी सेवा करनेकी ही मनुष्यपर जिम्मेवारी
है? अपना माननेकी बिलकुल जिम्मेवारी नहीं।(2) पन्द्रहवें अध्यायमें भगवान्ने पहले क्षर -- संसारवृक्षका वर्णन किया। फिर उसका छेदन करके परम पुरुष परमात्माके शरण होने अर्थात् संसारसे अपनापन हटाकर एकमात्र परमात्माको अपना माननेकी प्रेरणा की। फिर अक्षर -- जीवात्माको अपना सनातन अंश बताते हुए उसके स्वरूपका वर्णन किया। उसके बाद भगवान्ने (बारहवेंसे पन्द्रहवें श्लोकतक) अपने प्रभावका वर्णन करते हुए बताया कि सूर्य?
चन्द्र और अग्निमें मेरा ही तेज है मैं ही पृथ्वीमें प्रविष्ट होकर अपनी शक्तिसे चराचर सब प्राणियोंको धारण करता हूँ मैं ही अमृतमय चन्द्रके रूपसे सम्पूर्ण वनस्पतियोंको पुष्ट करता हूँ वैश्वानर अग्निके रूपमें मैं ही प्राणियोंके शरीरमें स्थित होकर उनके द्वारा खाये हुए अन्नको पचाता हूँ मैं ही सब प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विद्यमान हूँ मेरेसे ही स्मृति? ज्ञान और अपोहन (भ्रम? संशय आदि दोषोंका नाश)
होता है वेदादि सब शास्त्रोंके द्वारा,मैं ही जाननेयोग्य हूँ और वेदोंके अन्तिम सिद्धान्तका निर्णय करनेवाला तथा वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ। इस प्रकार अपना प्रभाव प्रकट करनेके बाद इस श्लोकमें भगवान् यह गुह्यतम रहस्य प्रकट करते हैं कि जिसका यह सब प्रभाव है? वह (क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम) पुरुषोत्तम मैं (साक्षात् साकाररूपसे प्रकट श्रीकृष्ण) ही हूँ।भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनपर बहुत विशेष कृपा करके
ही अपने रहस्यकी बात अपने मुखसे प्रकट की है जैसे -- कोई पिता अपने पुत्रके सामने अपनी गुप्त सम्पत्ति प्रकट कर दे अथवा कोई आदमी किसी भूलेभटके मनुष्यको अपना परिचय दे दे कि जिसके लिये तू भटक रहा है? वह मैं ही हूँ और तेरे सामने बैठा हूँ, सम्बन्ध -- चौदहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भगवान्ने जिस अव्यभिचारिणी भक्तिकी बात कही थी और जिसको प्राप्त करानेके लिये इस पन्द्रहवें अध्यायमें संसार? जीव और परमात्माका विस्तृत विवेचन किया गया? उसका अब आगेके श्लोकमें उपसंहार करते हैं।