।।16.5।।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।16.5।।
daivī sampad vimokṣhāya nibandhāyāsurī matā mā śhuchaḥ sampadaṁ daivīm abhijāto ’si pāṇḍava
daivī—divine; sampat—qualities; vimokṣhāya—toward liberation; nibandhāya—to bondage; āsurī—demoniac qualities; matā—are considered; mā—do not; śhuchaḥ—grieve; sampadam—virtues; daivīm—saintly; abhijātaḥ—born; asi—you are; pāṇḍava—Arjun, the son of Pandu
अनुवाद
।।16.5।।दैवी-सम्पत्ति मुक्तिके लिये और आसुरी-सम्पत्ति बन्धनके लिये है। हे पाण्डव तुम दैवी-सम्पत्तिको प्राप्त हुए हो, इसलिये तुम्हें शोक (चिन्ता) नहीं करना चाहिये।
टीका
16.5।।व्याख्या--'दैवी सम्पद्विमोक्षाय'--मेरेको भगवान्की तरफ ही चलना है -- यह भाव साधकमें जितना स्पष्टरूपसे आ जाता है, उतना ही वह भगवान्के सम्मुख हो जाता है। भगवान्के सम्मुख होनेसे,उसमें संसारसे विमुखता आ जाती है। संसारसे विमुखता आ जानेसे आसुरी-सम्पत्तिके जितने दुर्गुण-दुराचार हैं, वे कम होने लगते हैं और दैवी-सम्पत्तिके जितने सद्गुण-सदाचार हैं, वे प्रकट होने लगते हैं। इससे साधककी भगवान्में और भगवान्के
नाम, रूप, लीला, गुण, चरित्र आदिमें रुचि हो जाती है। इसमें विशेषतासे ध्यान देनेकी बात है कि साधकका उद्देश्य जितना दृढ़ होगा, उतना ही उसका परमात्माके साथ जो अनादिकालका सम्बन्ध है, वह प्रकट हो जायगा और संसारके साथ जो माना हुआ सम्बन्ध है, वह मिट जायगा। मिट क्या जायगा, वह तो प्रतिक्षण मिट ही रहा है! वास्तवमें प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है नहीं। केवल इस जीवने सम्बन्ध मान लिया है। इस माने हुए सम्बन्धकी सद्भावनापर
अर्थात् 'शरीर ही मैं हूँ और शरीर ही मेरा है' -- इस सद्भावनापर ही संसार टिका हुआ है। इस सद्भावनाके मिटते ही संसारसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जायगा और दैवी-सम्पत्तिके सम्पूर्ण गुण प्रकट हो जायँगे, जो कि मुक्तिके हेतु हैं। दैवी-सम्पत्ति केवल अपने लिये ही नहीं है, प्रत्युत मात्र प्राणियोंके कल्याणके लिये है। जैसे गृहस्थमें छोटे, बड़े, बूढ़े आदि अनेक सदस्य होते हैं, पर सबका पालन-पोषण करनेके लिये गृहस्वामी
(घरका मुखिया) स्वयं उद्योग करता है, ऐसे ही संसारमात्रका उद्धार करनेके लिये भगवान्ने मनुष्यको बनाया है। वह मनुष्य और तो क्या, भगवान्की दी हुई विलक्षण शक्तिके द्वारा भगवान्के सम्मुख होकर, भगवान्की सेवा करके उन्हें भी अपने वशमें कर सकता है। ऐसा विचित्र अधिकार उसे दिया! है अतः मनुष्य उस अधिकारके अनुसार यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, जप, ध्यान, स्वाध्याय, सत्सङ्ग आदि जितना साधन-समुदाय है, उसका अनुष्ठान केवल
अनन्त ब्रह्माण्डोंके अनन्त जीवोंके कल्याणके लिये ही करे और दृढ़तासे यह संकल्प रखते हुए प्रार्थना करे कि 'हे नाथ! मात्र जीवोंका कल्याण हो, मात्र जीव जीवन्मुक्त हो जायँ, मात्र जीव आपके अनन्य प्रेमी भक्त बन जायँ; पर 'हे नाथ! यह होगा केवल आपकी कृपासे ही। मैं तो केवल प्रार्थना कर सकता हूँ और वह भी आपकी दी हुई सद्बुद्धिके द्वारा ही!' ऐसा भाव रखते हुए अपनी कहलानेवाली शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धनसम्पत्ति
आदि सभी चीजोंको मात्र दुनियाके कल्याणके लिये भगवान्के अर्पण कर दे (टिप्पणी प0 805.1)। ऐसा करनेसे अपनी कहलानेवाली चीजोंकी तो संसारके साथ और अपनी भगवान्के साथ स्वतःसिद्ध एकता प्रकट हो जायगी। इसे भगवान्ने 'दैवी सम्पद्विमोक्षाय' पदोंसे कहा है। 'निबन्धायासुरी मता'--जो जन्म-मरणको देनेवाली है, वह सब आसुरी-सम्पत्ति है। जबतक मनुष्यकी अहंताका परिवर्तन नहीं होता, तबतक अच्छे-अच्छे गुण धारण करनेपर वे निरर्थक
तो नहीं जाते, पर उनसे उसकी मुक्ति हो जायगी -- ऐसी बात नहीं है। तात्पर्य यह है कि जबतक 'मेरा शरीर बना रहे, मेरेको सुख-आराम मिलता रहे' इस प्रकारके विचार अहंतामें बैठे रहेंगे, तबतक ऊपरसे भरे हुए दैवी-सम्पत्तिके गुण मुक्तिदायक नहीं होंगे। हाँ, यह बात तो हो सकती है कि वे गुण उसको शुभ फल देनेवाले हो जायँगे, ऊँचे लोक देनेवाले हो जायँगे, पर मुक्ति नहीं देंगे। जैसे बीजको मिट्टीमें मिला देनेपर मिट्टी, जल,
हवा, धूप -- ये सभी उस बीजको ही पुष्ट करते हैं; आकाश भी उसे अवकाश देता है, बीजसे उसी जातिका वृक्ष पैदा होता है और उस वृक्षमें उसी जातिके फल लगते हैं। ऐसे ही अहंता-(मैं-पन-) में संसारके संस्काररूपी बीज रखते हुए जिस शुभ-कर्मको करेंगे, वह शुभ-कर्म उन बीजोंको ही पुष्ट करेगा और उन बीजोंके अनुसार ही फल देगा। तात्पर्य यह है कि सकाम मनुष्यकी अहंताके भीतर संसारके जो संस्कार प़ड़े हैं, उन संस्कारोंके अनुसार
उसकी सकाम साधनामें अणिमा, गरिमा आदि सिद्धियाँ आयेंगी। उसमें और कुछ विशेषता भी आयेगी, तो वह ब्रह्मलोक आदि लोकोंमें जाकर वहाँके ऊँचे-ऊँचे भोग प्राप्त कर सकता है, पर उसकी मुक्ति नहीं होगी (गीता 8। 16)। अब प्रश्न यह होता है कि मनुष्य मुक्तिके लिये क्या करे ? उत्तर यह है कि जैसे बीजको भून दिया जाय या उबाल दिया जाय, तो वह बीज अङ्कुर नहीं देगा (टिप्पणी प0 805.2)। उस बीजको बोया जाय तो पृथ्वी उसको अपने
साथ मिला लेगी। फिर यह पता ही नहीं चलेगा कि बीज था या नहीं! ऐसे ही मनुष्यका जब दृढ़ निश्चय हो जायगा कि मुझे केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है, तो संसारके सब बीज ( संस्कार) अहंतामेंसे नष्ट हो जायँगे। शरीर-प्राणोंमें एक प्रकारकी आसक्ति होती है कि मैं सुखपूर्वक जीता रहूँ, मेरेको मान-बड़ाई मिलती रहे, मैं भोग भोगता रहूँ, आदि। इस प्रकार जो व्यक्तित्वको रखकर चलते हैं, उनमें अच्छे गुण आनेपर भी आसक्तिके कारण
उनकी मुक्ति नहीं हो सकती; क्योंकि ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण प्रकृतिका सम्बन्ध ही है (गीता 13। 21)। तात्पर्य यह है कि जिसने प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध जोड़ा हुआ है, वह शुभ-कर्म करके ब्रह्मलोकतक भी चला जाय तो भी वह बन्धनमें ही रहेगा। मार्मिक बात भगवान्ने इस अध्यायमें आसुरी-सम्पदाके तीन फल बताये हैं, जिनमेंसे इस श्लोकमें 'निबन्धायासुरी मता' पदोंसे बन्धनरूप सामान्य फल बताया है। दूसरे अध्यायके
इकतालीसवेंसे चौवालीसवें श्लोकोंमें वर्णित और नवें अध्यायके बीसवें-इक्कीसवें श्लोकोंमें वर्णित सकाम उपासक भी इसीमें आ जाते हैं। जिनका उद्देश्य केवल भोग भोगना और संग्रह करना है, ऐसे मनुष्योंकी बहुत शाखाओंवाली अनन्त बुद्धियाँ होती हैं अर्थात् उनकी कामनाओंका कोई अन्त नहीं होता। जो कामनाओंमें तन्मय हैं और कर्मफलके प्रशंसक वेदवाक्योंमें ही प्रीति रखते हैं, वे वैदिक यज्ञादिको विधिविधानसे करते हैं, पर कामनाओंके
कारण उनको जन्म-मरणरूप बन्धन होता है (गीता 2। 41 -- 44)। ऐसे ही जो यहाँके भोगोंको न चाहकर स्वर्गके दिव्य भोगोंकी कामनासे शास्त्रविहित यज्ञ करते हैं, वे यज्ञके फलस्वरूप (स्वर्गके प्रतिबन्धक पाप नष्ट होनेसे) स्वर्गमें जाकर दिव्य भोग भोगते हैं। जब उनके (स्वर्ग देनेवाले) पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब वे वहाँसे लौटकर आवागमनको प्राप्त हो जाते हैं (गीता 9। 20 -- 21)। अब यहाँ शङ्का यह होती है कि जिस कृष्णमार्ग
(गीता 8। 25) से उपर्युक्त सकाम पुरुष जाते हैं, उसी मार्गसे योगभ्रष्ट पुरुष (गीता 6। 41) भी जाते हैं; अतः दोनोंका मार्ग एक होनेसे और दोनों पुनरावर्ती होनेसे सकाम पुरुषोंके समान योगभ्रष्ट पुरुषोंको भी 'निबन्धायासुरी मता' वाला बन्धन होना चाहिये। इसका समाधान यह है कि योगभ्रष्टोंको यह बन्धन नहीं होता। कारण कि पूर्व-(मनुष्यजन्ममें की हुई) साधनामें उनका उद्देश्य अपने कल्याणका रहा है और अन्त समयमें वासना,
बेहोशी, पीड़ा आदिके कारण उनको विघ्नरूपसे स्वर्गादिमें जाना पड़ता है। अतः इन योगभ्रष्टोंके इस मार्गसे जानेके कारण ही (गीता 8। 25 में) सकाम पुरुषोंके लिये भी 'योगी' पद आया है, अन्यथा सकाम पुरुष योगी कहे ही नहीं जा सकते। आसुरी-सम्पत्तिका दूसरा फल है -- 'पतन्ति नरकेऽशुचौ' (गीता 16। 16)। जो कामनाके वशीभूत होकर पाप, अन्याय, दुराचार आदि करते हैं, उनको फलस्वरूप स्थानविशेष नरकोंकी प्राप्ति होती है। आसुरी-सम्पत्तिका
तीसरा फल है -- 'आसुरीष्वेव योनिषु', 'ततो यान्त्यधमां गतिम्' (गीता 16। 19 -- 20)। जिनके भीतर दुर्गुण-दुर्भाव रहते हैं और कभी-कभी उनसे प्रेरित होकर वे दुराचार भी कर बैठते हैं, उनको दुर्गुण-दुर्भावके अनुसार पहले तो आसुरी योनिकी प्राप्ति और फिर दुराचारके अनुसार अधम गति-(नरकों) की प्राप्ति बतायी गयी है। 'मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव' -- केवल अविनाशी परमात्माको चाहनेवालेकी दैवी-सम्पत्ति होती
है, जिससे मुक्ति होती है और विनाशी संसारके भोग तथा संग्रहको चाहनेवालेकी आसुरी-सम्पत्ति होती है, जिससे बन्धन होता है -- इस बातको सुनकर अर्जुनके मनमें कहीं यह शङ्का पैदा न हो जाय कि मुझे तो अपनेमें दैवी-सम्पत्ति दीखती ही नहीं! इसलिये भगवान् कहते हैं कि 'भैया अर्जुन! तुम दैवी-सम्पत्तिको प्राप्त हुए हो; अतः शोकसंदेह मत करो। दैवीसम्पत्तिको प्राप्त हो जानेपर साधकके द्वारा कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोगका
साधन स्वाभाविक ही होता है। कर्तव्यपालनसे कर्मयोगीके और ज्ञानाग्निसे ज्ञानयोगीके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं (गीता 4। 23, 37); परंतु भक्तियोगीके सभी पाप भगवान् नष्ट करते हैं (गीता 18। 66) और संसारसे उसका उद्धार करते हैं (गीता 12। 7)। 'मा शुचः' (टिप्पणी प0 806)--तीसरे श्लोकमें 'भारत' चौथे श्लोकमें 'पार्थ' और इस पाँचवें श्लोकमें 'पाण्डव'--इन तीन सम्बोधनोंका प्रयोग करके भगवान् अर्जुनको उत्साह दिलाते हैं
कि 'भारत! तुम्हारा वंश बड़ा श्रेष्ठ है; पार्थ तुम उस माता(पृथा) के पुत्र हो? जो वैरभाव रखनेवालोंकी भी सेवा करनेवाली है पाण्डव तुम बड़े धर्मात्मा और श्रेष्ठ पिता(पाण्डु) के पुत्र हो। तात्पर्य है कि वंश? माता और पिता -- इन तीनों ही दृष्टियोंसे तुम श्रेष्ठ हो अतः तुम्हारेमें दैवीसम्पत्ति भी स्वाभाविक है। इसलिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। गीतामें दो बार 'मा शुचः' पद आये हैं -- एक यहाँ और दूसरा अठारहवें
अध्यायके छाछठवें श्लोकमें। इन पदोंका दो बार प्रयोग करके भगवान् अर्जुनको समझाते हैं कि तुझे साधन और सिद्धि -- दोनोंके ही विषयमें चिन्ता नहीं करनी चाहिये। साधनके विषयमें यहाँ यह आश्वासन दिया कि तू दैवीसम्पत्तिको प्राप्त हुआ है और सिद्धिके विषय (18। 66) में यह आश्वासन दिया कि मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा। तात्पर्य यह है कि साधकको अपने साधनमें जो कमियाँ दीखती हैं? उनको तो वह दूर करता रहता
है? पर कमियोंके कारण उसके अन्तःकरणमें नम्रताके साथ एक निराशासी रहती है कि मेरेमें अच्छे गुण कहाँ हैं? जिससे साध्यकी प्राप्ति हो साधककी इस निराशाको दूर करनेके लिय भगवान् अर्जुनको साधकमात्रका प्रतिनिधि बनाकर उसे यह आश्वासन देते हैं कि तुम साधन और साध्यके विषयमें चिन्ताशोक मत करो? निराश मत होओ। दैवीसम्पत्तिवाले पुरुषोंका यह स्वभाव होता है कि उनके सामने अनुकूल या प्रतिकूल कोई भी परिस्थिति? घटना आये?
उनकी दृष्टि हमेशा अपने कल्याणकी तरफ ही रहती है। युद्धके मौकेपर जब भगवान्ने अर्जुनका रथ दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा किया? तब उन सेनाओंमें खड़े अपने कुटुम्बियोंको देखकर अर्जुनमें कौटुम्बिक स्नेहरूपी मोह पैदा हो गया और वे करुणा तथा शोकसे व्याकुल होकर युद्धरूप कर्तव्यसे हटने लगे। उन्हें विचार हुआ कि युद्धमें कुटुम्बियोंको मारनेसे मुझे पाप ही लगेगा? जिससे मेरे कल्याणमें बाधा लगेगी। इन्हें मारनेसे हमें नाशवान्
राज्य और सुखकी प्राप्ति तो हो जायगी? पर उससे श्रेय(कल्याण) की प्राप्ति रुक जायगी। इस प्रकार अर्जुनमें कुटुम्बका मोह और पाप(अन्याय? अधर्म) का भय -- दोनों एक साथ आ जाते हैं। उनमें जो कुटुम्बका मोह है? वह आसुरीसम्पत्ति है और पापके कारण अपने कल्याणमें बाधा लग जानेका जो भय है? वह दैवीसम्पत्ति है। इसमें भी एक खास बात है। अर्जुन कहते हैं कि हमने जो युद्ध करनेका निश्चय कर लिया है? यह भी एक महान् पाप है
-- 'अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्' (1। 45)। वे युद्धक्षेत्रमें भी भगवान्से बारबार अपने कल्याणकी बात पूछते हैं -- 'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' (2। 7) 'तदेंक वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्' (3। 2) 'यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्' (5। 1)। यह उनमें दैवीसम्पत्ति होनेके कारण ही है। इसके विपरीत जिनमें आसुरीसम्पत्ति है? ऐसे दुर्योधन आदिमें राज्य और धनका इतना लोभ है कि वे
कुटुम्बके नाशसे होनेवाले पापकी तरफ देखते ही नहीं (1। 38)। इस प्रकार अर्जुनमें दैवीसम्पत्ति आरम्भसे ही थी। मोहरूप आसुरीसम्पत्ति तो उनमें आगन्तुक रूपसे आयी थी? जो आगे चलकर भगवान्की कृपासे नष्ट हो गयी -- 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत' (18। 73)। इसीलिये यहाँ भगवान् कहते हैं कि भैया अर्जुन तू चिन्ता मत कर क्योंकि तू दैवीसम्पत्तिको प्राप्त है। अर्जुनको अपनेमें दैवीसम्पत्ति नहीं दीखती?
इसलिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तुम्हारेमें दैवीसम्पत्ति प्रकट है। कारण कि जो श्रेष्ठ पुरुष होते हैं? उनको अपनेमें अच्छे गुण नहीं दीखते और अवगुण उनमें रहते नहीं। अपनेमें गुण न दीखनेका कारण यह है कि उनकी गुणोंके साथ अभिन्नता होती है। जैसे आँखमें लगा हुआ अंजन आँखको नहीं दीखता क्योंकि वह आँखके साथ एक हो जाता है? ऐसे ही दैवीसम्पत्तिके साथ अभिन्नता होनेपर गुण नहीं दीखते। जबतक अपनेमें गुण दीखते हैं?
तबतक गुणोंके साथ एकता नहीं हुई है। गुण तभी दीखते हैं? जब वे अपनेसे कुछ दूर होते हैं। अतः भगवान् अर्जुनको आश्वासन देते हैं कि तुम्हारेमें दैवीसम्पत्ति स्वाभाविक है? भले ही वह तुम्हें न दीखे इसलिये तुम चिन्ता मत करो। मार्मिक बात भगवान्ने कृपा करके मानवशरीर दिया है? तो उसकी सफलताके लिये अपने भावों और आचरणोंका विशेष ध्यान रखना चाहिये। कारण कि शरीरका कुछ पता नहीं कि कब प्राण चले जायँ। ऐसी अवस्थामें
जल्दीसेजल्दी अपना उद्धार करनेके लिये दैवीसम्पत्तिका आश्रय और आसुरीसम्पत्तिका त्याग करना बहुत आवश्यक है। दैवीसम्पत्तिमें देव शब्द परमात्माका वाचक है और उनकी सम्पत्ति दैवीसम्पत्ति कहलाती है --,'देवस्येयं दैवी।' परमात्माका ही अंश होनेसे जीवमें दैवीसम्पत्ति स्वतःस्वाभाविक है। जब जीव अपने अंशी परमात्मासे विमुख होकर जड प्रकृतिके सम्मुख हो जाता है अर्थात् उत्पत्तिविनाशशील शरीरादि पदार्थोंका सङ्ग (तादात्म्य)
कर लेता है? तब उसमें आसुरीसम्पत्ति आ जाती है। कारण कि काम? क्रोध? लोभ? मोह? दम्भ? द्वेष आदि जितने भी दुर्गुणदुराचार हैं? वे सबकेसब नाशवान्के सङ्गसे ही पैदा होते हैं। जो प्राणोंको बनाये रखना चाहते हैं? प्राणोंमें ही जिनकी रति है? ऐसे प्राणपोषणपरायण लोगोंका वाचक 'असुर' शब्द है -- 'असुषु प्राणेषु रमन्ते इति असुराः।' इसलिये मैं सुखपूर्वक जीता रहूँ -- यह इच्छा आसुरीसम्पत्तिका खास लक्षण है। दैवी और
आसुरीसम्पत्ति सब प्राणियोंमें पायी जाती है (गीता 16। 6)। ऐसा कोई भी साधारण प्राणी नहीं है? जिसमें ये दोनों सम्पत्तियाँ न पायी जाती हों। हाँ? इसमें जीवन्मुक्त? तत्त्वज्ञ महापुरुष तो आसुरीसम्पत्तिसे सर्वथा रहित हो जाते हैं (टिप्पणी प0 807)? पर दैवीसम्पत्तिसे रहित कभी कोई हो ही नहीं सकता। कारण कि जीव देव अर्थात् परमात्माका सनातन अंश है। परमात्माका अंश होनेसे इसमें दैवीसम्पत्ति रहती ही है। आसुरीसम्पत्तिकी
मुख्यता होनेसे दैवीसम्पत्ति दबसी जाती है? मिटती नहीं क्योंकि सत्वस्तु कभी मिट नहीं सकती। इसलिये कोई भी मनुष्य सर्वथा दुर्गुणीदुराचारी नहीं हो सकता? सर्वथा निर्दयी नहीं हो सकता? सर्वथा असत्यवादी नहीं हो सकता? सर्वथा व्यभिचारी नहीं हो सकता। जितने भी दुर्गुणदुराचार हैं? वे किसी भी व्यक्तिमें सर्वथा हो ही नहीं सकते। कोई भी? कभी भी? कितना ही दुर्गुणीदुराचारी क्यों न हो? उसके साथ आंशिक सद्गुणसदाचार रहेंगे
ही। दैवीसम्पत्ति प्रकट होनेपर आसुरीसम्पत्ति मिट जाती है क्योंकि दैवीसम्पत्ति परमात्माकी होनेसे अविनाशी है और आसुरीसम्पत्ति संसारकी होनेसे नाशवान् है। सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्माका अंश होनेसे मैं सदा जीता रहूँ अर्थात् कभी मरूँ नहीं मैं सब कुछ जान लूँ अर्थात् कभी अज्ञानी न रहूँ मैं सर्वदा सुखी रहूँ अर्थात् कभी दुःखी न होऊँ -- इस तरह सत्चित्आनन्दकी इच्छा प्राणिमात्रमें रहती है। पर उससे गलती यह होती
है कि मैं रहूँ तो शरीरसहित रहूँ मैं जानकर बनूँ तो बुद्धिको लेकर जानकार बनूँ मैं सुख लूँ तो इन्द्रियों और शरीरको लेकर सुख लूँ -- इस तरह इन इच्छाओंको नाशवान् संसारसे ही पूरी करना चाहता है। इस प्रकार प्राणोंका मोह होनेसे आसुरीसम्पत्ति रहती ही है (टिप्पणी प0 808)। इसमें एक मार्मिक बात है कि प्राणीमें नित्यनिरन्तर रहनेकी इच्छा होती है? तो यह नित्यनिरन्तर रह सकता है और मैं मरूँ नहीं? यह इच्छा होती है? तो
यह,मरता नहीं। जीता रहना अच्छा लगता है? तो जीते रहना इसका स्वाभाविक है और मरनेसे भय लगता है? तो मरना इसका स्वाभाविक नहीं है। ऐसे ही अज्ञान बुरा लगता है? तो अज्ञान इसका साथी नहीं है। दुःख बुरा लगता है? तो दुःख इसका साथी नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि इसका स्वरूप सत् है। असत् इसका स्वरूप नहीं है। सत्स्वरूप होकर भी यह सत्को यह क्यों चाहता है कारण कि इसने नष्ट होनेवाले असत् शरीरादिको मैं तथा मेरा मान लिया
है और उनमें आसक्त हो गया है। तात्पर्य यह कि असत्को स्वीकार करनेसे स्वयं सत् होते हुए भी सत्की इच्छा होती है जडताको स्वीकार करनेसे स्वयं ज्ञानस्वरूप होते हुए भी ज्ञानकी इच्छा होती है दुःखरूप संसारको स्वीकार करनेसे स्वयं सुखस्वरूप होते हुए भी सुखकी इच्छा होती है। पर उसकी पूर्ति भी असत्जडदुःखरूप संसारके द्वारा ही करना चाहता है। तादात्म्यके कारण यह शरीरको ही रखना चाहता है? बुद्धिसे ही ज्ञानी बनना चाहता
है? शरीरसे ही श्रेष्ठ और सुखी बनना चाहता है? अपने नाम और रूपको ही स्थायी रखना चाहता है। अपने नामको तो मरनेके बाद भी स्थायी रखना चाहता है? इस प्रकार असत्के सङ्गसे आसुरीसम्पत्ति आती है। ऐसे ही असत्के सङ्गका त्याग करनेसे आसुरीसम्पत्ति नष्ट हो जाती है और दैवीसम्पत्ति प्रकट हो जाती है। जब सत्सङ्ग? स्वाध्याय आदिके द्वारा मनुष्यमें परमात्मप्राप्ति करनेका विचार होता है? तब वह इसके लिये दैवीसम्पत्तिको
धारण करना चाहता है। दैवीसम्पत्तिको वह कर्तव्यरूपसे उपार्जित करता है कि मुझे सत्य बोलना है? मुझे अहिंसक बनना है? मुझे दयालु बनना है? आदिआदि। इस प्रकार जितने भी दैवीसम्पत्तिके गुण हैं? उन गुणोंको वह अपने बलसे उपार्जित करना चाहता है। यह सिद्धान्त है कि कर्तव्यरूपसे प्राप्त की हुई और अपने बल(पुरुषार्थ) से उपार्जित की हुई चीज स्वाभाविक नहीं होती? प्रत्युत कृत्रिम होती है। इसके अलावा अपने पुरुषार्थसे उपार्जित
माननेके कारण अभिमान आता है कि मैं बड़ा सत्यभाषी हूँ? मैं बड़ा अच्छा आदमी हूँ? आदि। जितने भी दुर्गुणदुराचार हैं? सबकेसब अभिमानकी छायामें रहते हैं और अभिमानसे ही पुष्ट होते हैं। इसलिये अपने उद्योगसे किया हुआ जितना भी साधन होता है? उस साधनमें अहंकार ज्योंकात्यों रहता है और अहंकारमें आसुरीसम्पत्ति रहती है। अतः जबतक वह दैवीसम्पत्तिके लिये उद्योग करता रहता है? तबतक आसुरीसम्पत्ति छूटती नहीं। अन्तमें वह हार
मान लेता है अथवा उसका उत्साह कम हो जाता है? उसका प्रयत्न मंद हो जाता है और मान लेता है कि यह मेरे वशकी बात नहीं है। साधककी ऐसी दशा क्यों होती है कारण कि उसने अभीतक यह जाना नहीं कि आसुरीसम्पत्ति मेरेमें कैसे आयी आसुरीसम्पत्तिका कारण है -- नाशवान्का सङ्ग। इसका सङ्ग जबतक रहेगा? तबतक आसुरीसम्पत्ति रहेगी ही। वह नाशवान्के सङ्गको नहीं छोड़ता? तो आसुरीसम्पत्ति उसे नहीं छोड़ती अर्थात् आसुरीसम्पत्ति से वह सर्वथा
रहित नहीं हो सकता। इसलिये यदि वह दैवीसम्पत्तिको लाना चाहे? तो नाशवान् जडके सङ्गका त्याग कर दे। नाशवान्के सङ्गका त्याग करनेपर दैवीसम्पत्ति स्वतः प्रकट होगी क्योंकि परमात्माका अंश होनेसे परमात्माकी सम्पत्ति उसमें स्वतःसिद्ध है? कर्तव्यरूपसे उपार्जित नहीं करनी है। इसमें एक और मार्मिक बात है। दैवीसम्पत्तिके गुण स्वतःस्वाभाविक रहते हैं। इन्हें कोई छोड़ नहीं सकता। इसका पता कैसे लगे जैसे कोई विचार करे
कि मैं सत्य ही बोलूँगा तो वह उम्रभर सत्य बोल सकता है। परन्तु कोई विचार करे कि मैं झूठ ही बोलूँगा? तो वह आठ पहर भी झूठ नहीं बोल सकता। सत्य ही बोलनेका विचार होनेपर वह दुःख भोग सकता है? पर झूठ बोलनेके लिये बाध्य नहीं हो सकता। परन्तु झूठ ही बोलूँगा -- ऐसा विचार होनेपर तो खानापीना? बोलनाचलना तक उसके लिये मुश्किल हो जायगा। भूख लगी हो और झूठ बोले कि भूख नहीं है? तो जीना मुश्किल हो जायगा। यदि वह ऐसी प्रतिज्ञा
कर ले कि झूठ बोलनेसे बेशक मर जाऊँ? पर झूठ ही बोलूँगा? तो यह प्रतिज्ञा सत्य हो जायगी। अतः या तो प्रतिज्ञाभङ्ग होनेसे सत्य आ जायगा या प्रतिज्ञा सत्य हो जायगी। सत्य कभी छूटेगा नहीं क्योंकि सत्य मनुष्यमात्रमें स्वाभाविक है। इस तरह दैवीसम्पत्तिके जितने भी गुण हैं? सबके विषयमें ऐसी ही बात है। वे तो नित्य रहनेवाले और स्वाभाविक हैं। केवल नाशवान्के सङ्गका त्याग करना है। नाशवान्का सङ्ग अनित्य और अस्वाभाविक
है। आसुरीसम्पत्ति आगन्तुक है। दुर्गुणदुराचार बिलकुल ही आगन्तुक हैं। कोई आदमी प्रसन्न रहता है? तो लोग ऐसा नहीं कहते कि तुम प्रसन्न क्यों रहते हो पर कोई आदमी दुःखी रहता है? तब कहते हैं कि दुःखी क्यों रहते हो क्योंकि प्रसन्नता स्वाभाविक है और दुःख अस्वाभाविक (आगन्तुक) है। इसलिये अच्छे आचरण करनेवालेको कोई नहीं कहता कि तुम अच्छे आचरण क्यों करते हो पर बुरे आचरणवालेको सब कहते हैं कि तुम बुरे आचरण क्यों
करते हो अतः सद्गुणसदाचार स्वतः रहते हैं और दुर्गुणदुराचार सङ्गसे आते हैं? इसलिये आगन्तक हैं। अर्जुनमें दैवीसम्पत्ति विशेषतासे थी। जब उनमें कायरता आ गयी? तब भगवान्ने आश्चर्यसे कहा कि तेरेमें यह कायरता कहाँसे आ गयी (2। 2 -- 3) तात्पर्य यह है कि अर्जुनमें यह दोष स्वाभाविक नहीं? आगन्तुक है। पहले उनमें यह दोष था नहीं। अर्जुन आगे कहते हैं कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो? ऐसी बात कहिये (2। 7 3। 2 5।
1)। युद्धके प्रसङ्गमें भी अर्जुनमें मेरा कल्याण हो जाय यह इच्छा है। तो इससे प्रतीत होता है कि अर्जुनके स्वभावमें पहलेसे ही दैवीसम्पत्ति थी? नहीं तो उर्वशीजैसी अप्सराको एकदम ठुकरा देना कोई मामूली आदमीकी बात नहीं थी। वे अर्जुन विचार करते हैं कि मेरेको दैवीसम्पत्ति प्राप्त है कि नहीं मैं उसका अधिकारी हूँ कि नहीं अतः उसे आश्वासन देते हुए भगवान् कहते हैं कि तू शोक मत कर तू दैवीसम्पत्तिको प्राप्त है --
'मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव' (16। 5)। सत् (चेतन) और असत्(जड) के तादात्म्यसे अहम्भाव पैदा होता है। मनुष्य शुभ या अशुभ? कोई भी काम करता है? तो अपने अहंकारको लेकर करता है। जब वह परमात्माकी तरफ चलता है? तब उसके अहंभावमें सत्अंशकी मुख्यता होती है और जब संसारकी तरफ चलता है? तब उसके अहंभावमें नाशवान् असत्अंशकी मुख्यता होती है। सत्अंशकी मुख्यता होनेसे वह दैवीसम्पत्तिका अधिकारी कहा जाता है और
असत्अंशकी मुख्यता होनेसे वह उसका अनधिकारी कहा जाता है। असत्अंशको मिटानेके लिये ही मानवशरीर मिला है। अतः मनुष्य निर्बल नहीं है? पराधीन नहीं है? प्रत्युत यह सर्वथा सबल है? स्वाधीन है। नाशवान्? असत्अंश तो सबका मिटता ही रहता है? पर वह उससे अपना सम्बन्ध बनाये रखता है। यह भूल होती है। नाशवान्से सम्बन्ध बनाये रखनेके कारण आसुरीसम्पत्तिका सर्वथा अभाव नहीं होता। अहंभाव नाशवान्? असत्के सम्बन्धसे ही होता
है। असत्का सम्बन्ध मिटते ही अहंभाव मिट जाता है। प्रकृतिके अंशको पकड़नेसे ही अहंभाव है। अहम्में जडचेतन दोनों हैं। तादात्म्य होनेसे पुरुष(चेतन) ने जडके साथ अपनेको एक मान लिया। भोगपदार्थोंकी सब इच्छाएँ असत्अंशमें ही रहती हैं। परन्तु सुखदुःखके भोक्तापनमें पुरुष हेतु बनता है -- 'पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते' (13। 20)। वास्तवमें हेतु है नहीं क्योंकि वह प्रकृतिस्थ होनेसे ही भोक्ता बनता है --
'पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते' (13। 21)। अतः सुखदुःखरूप जो विकार होता है? वह मुख्यताके जडअंशमें ही होता है। परन्तु तादात्म्य होनेसे उसका परिणाम ज्ञाता चेतनपर होता है कि मैं सुखी हूँ? मैं दुःखी हूँ। जैसे विवाह होनेपर स्त्रीकी जो आवश्यकता होती है? वह अपनी आवश्यकता कहलाती है। पुरुष जो गहने आदि खरीदता है? वह स्त्रीके सम्बन्धसे ही (स्त्रीके लिये) खरीदता है? नहीं तो उसे अपने लिये गहने आदिकी आवश्यकता नहीं
है। ऐसे ही जडअंशके सम्बन्धसे ही चेतनमें जडकी इच्छा और जडका भोग होता है। जडका भोग जडअंशमें ही होता है? पर जडसे तादात्म्य होनेसे भोगका परिणाम केवल जडमें नहीं हो सकता अर्थात् सुखदुःखका भोक्ता केवल जडअंश नहीं बन सकता। परिणामका ज्ञाता चेतन ही भोक्ता बनता है। जितनी क्रियाएँ होती हैं? सब प्रकृतिमें होती हैं (3। 27 13। 29)? पर तादात्म्यके कारण चेतन उन्हें अपनेमें मान लेता है कि मैं कर्ता हूँ। तादात्म्यमें
चेतन (परमात्मा) की इच्छामें चेतनकी मुख्यता और जड(संसार) की इच्छामें जडकी मुख्यता रहती है। जब चेतनकी मुख्यता रहती है? तब दैवीसम्पत्ति आती है और जब जडकी मुख्यता रहती है? तब आसुरीसम्पत्ति आती है। जडसे तादात्म्य रहनेपर भी सत्? चित् और आनन्दकी इच्छा चेतनमें ही रहती है। संसारकी ऐसी कोई इच्छा नहीं है? जो इन तीन (सदा रहना? सब कुछ जानना और सदा सुखी रहना),इच्छाओंमें सम्मिलित न हो। इससे गलती यह होती है कि इन
इच्छाओंकी पूर्ति जड(संसार) के द्वारा करना चाहता है। जडको और आसुरीसम्पत्तिको स्वयं(चेतन) ने स्वीकार किया है। जडमें यह ताकत नहीं है कि वह स्वयंके साथ स्थिर रह जाय। जडमें तो हरदम परिवर्तन होता रहता है। चेतन उसको न पकड़े? तो वह अपनेआप छूट जायगा। कारण कि चेतनमें कभी विकार नहीं होता। वह सदा ज्योंकात्यों रहता है। पर असत् प्रकृति नित्यनिरन्तर? हरदम बदलती रहती है। वह कभी एकरूप रह ही नहीं सकती। चेतनने प्रकृतिके
साथ सम्बन्ध स्वीकार कर लिया। उस सम्बन्धकी सत्ता यह मैं और मेरेरूपसे स्वीकार कर लेता है। अतः जडका सम्बन्ध और उससे पैदा होनेवाली आसुरीसम्पत्ति आगन्तुक है। यदि यह स्वयंमें होती? तो इसका कभी नाश नहीं होता क्योंकि स्वयंका कभी नाश नहीं होता और आसुरीसम्पत्तिके त्यागकी बात ही नहीं होती। अनित्य होनेपर भी चेतनके सम्बन्धसे यह नित्य दीखने लगती है। अविनाशीके सम्बन्धसे विनाशी भी अविनाशीकी तरह दीखने लगता है। इसलिये
जिस मनुष्यमें आसुरीसम्पत्ति होती है? वह आसुरीसम्पत्तिका त्याग कर सकता है? और कल्याणका आचरण करके परमात्माको प्राप्त हो सकता है (16। 22)।परमात्माके सम्मुख होते ही आसुरीसम्पत्ति मिटने लगती है -- 'सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं'। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।(मानस 5। 44। 1) कारण कि जन्म कोटि अघ प्रकृतिसे सम्बन्ध स्वीकार करनेसे ही हुए हैं। प्रकृतिको स्वीकार न करें? तो फिर कैसे जन्ममरण होगा जन्ममरणमें कारण
प्रकृतिसे सम्बन्ध ही है -- 'कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता 13। 21)। परन्तु जीवात्मा प्रकृतिकी क्रियाको अपनेमें मान लेता है? और प्रकृतिके कार्य शरीरमें मैंमेरापन कर लेता है? जिससे जन्मतामरता रहता है। वास्तवमें यह कर्ता भी नहीं है और लिप्त भी नहीं है -- 'शरीरस्थोऽपि कौन्तये न करोति न लिप्यते' (13। 31)। इस वास्तविकताका अनुभव करना ही कर्ममें अकर्म तथा अकर्ममें कर्म देखना है। इन दोनों बातोंका
अभिप्राय यह है कि कर्म करते हुए भी यह सर्वथा निर्लिप्त तथा अकर्ता है और निर्लिप्त तथा अकर्ता रहते हुए ही यह कर्म करता है अर्थात् कर्म करते समय और कर्म न करते समय यह (आत्मा) नित्यनिरन्तर निर्लिप्त तथा अकर्ता रहता है। इस वास्तविकताका अनुभव करनेवाला ही मनुष्योंमें बुद्धिमान् है (4। 18)। जिसमें कर्तापनका भाव नहीं है और जिसकी बुद्धिमें लिप्तता नहीं है अर्थात् कोई भी कामना नहीं है? वह यदि सब प्राणियोंको
मार दे? तो भी पाप नहीं लगता ( 18। 17)। अर्जुनने पूछा कि मनुष्य किससे प्रेरित होकर पाप करता है तो भगवान्ने कहा -- कामनासे (3। 36 -- 37)। कामनाके कारण ही सब पाप होते हैं। शरीरके तादात्म्यसे भोग और संग्रहकी कामना होती है (टिप्पणी प0 810)। अतः जडका सङ्ग (महत्त्व) ही सम्पूर्ण पापोंका -- आसुरीसम्पत्तिका कारण है। जडका सङ्ग न हो? तो दैवीसम्पत्ति स्वतःसिद्ध है। अर्जुन साधकमात्रके प्रतिनिधि हैं। इसलिये
अर्जुनके निमित्तसे भगवान् साधकमात्रको आश्वासन देते हैं कि चिन्ता मत करो अपनेमें आसुरीसम्पत्ति दीख जाय? तो घबराओ मत क्योंकि तुम्हारेमें दैवीसम्पत्ति स्वतःस्वाभाविक विद्यमान है -- 'मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव'।।(16। 5) तात्पर्य यह हुआ कि साधकको पारमार्थिक उन्नतिसे कभी निराश नहीं होना चाहिये क्योंकि परमात्माका ही,अंश होनेसे मनुष्यमात्रमें परमात्माकी सम्पत्ति (दैवीसम्पत्ति) रहती ही है।
परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य होनेसे दैवीसम्पत्ति स्वतः प्रकट हो जाती है। परमात्माका अंश होनेके नाते साधकको परमात्मप्राप्तिसे कभी निराश नहीं होना चाहिये क्योंकि परमात्माने कृपा करके मनुष्यशरीर अपनी प्राप्तिके लिये ही दिया है। इसलिये परमात्माका संकल्प तो हमारे कल्याणका ही है। यदि हम अपना अलग कोई संकल्प न रखें? प्रत्युत परमात्माके संकल्पमें ही अपना संकल्प मिला दें? तो फिर उनकी कृपासे स्वतः कल्याण
हो ही जाता है। सम्बन्ध--सम्पूर्ण प्राणियोंमें चेतन और जड -- दोनों अंश रहते हैं। उनमेंसे कई प्राणियोंका जडतासे विमुख होकर चेतन(परमात्मा) की ओर मुख्यतासे लक्ष्य रहता है और कई प्राणियोंका चेतनसे विमुख होकर जडता(भोग और संग्रह) की ओर मुख्यतासे लक्ष्य रहता है। इस प्रकार चेतन और जडकी मुख्यताको लेकर प्राणियोंके दो भेद हो जाते हैं? जिनको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।