।।16.6।।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु।।16.6।।
dvau bhūta-sargau loke ’smin daiva āsura eva cha daivo vistaraśhaḥ prokta āsuraṁ pārtha me śhṛiṇu
dvau—two; bhūta-sargau—of created living beings; loke—in the world; asmin—this; daivaḥ—divine; āsuraḥ—demoniac; eva—certainly; cha—and; daivaḥ—the divine; vistaraśhaḥ—at great length; proktaḥ—said; āsuram—the demoniac; pārtha—Arjun, the son of Pritha; me—from me; śhṛiṇu—hear
अनुवाद
।।16.6।।इस लोकमें दो तरहके प्राणियोंकी सृष्टि है -- दैवी और आसुरी। दैवीका तो मैंने विस्तारसे वर्णन कर दिया, अब हे पार्थ ! तुम मेरेसे आसुरीका विस्तार सुनो।
टीका
।।16.6।। व्याख्या -- द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च -- आसुरीसम्पत्तिका विस्तारपूर्वक वर्णन करनेके लिये उसका उपक्रम करते हुए भगवान् कहते हैं कि इस लोकमें प्राणिसमुदाय दो तरहका है -- दैव और आसुर। तात्पर्य यह है कि प्राणिमात्रमें परमात्मा और प्रकृति -- दोनोंका अंश है। (गीता 10। 39 18। 40)। परमात्माका अंश चेतन है और प्रकृतिका अंश जड है। वह चेतन अंश जब परिवर्तनशील जडअंशके सम्मुख हो जाता है?
तब उसमें आसुरीसम्पत्ति आ जाती है और जब वह जड प्रकृतिसे विमुख होकर केवल परमात्माके सम्मुख हो जाता है? तब उसमें दैवीसम्पत्ति जाग्रत् हो जाती है।देव नाम परमात्माका है। परमात्माकी प्राप्तिके लिये जितने भी सद्गुणसदाचार आदि साधन हैं? वे सब दैवीसम्पदा हैं। जैसे भगवान् नित्य हैं? ऐसे ही उनकी साधनसम्पत्ति भी नित्य है। भगवान्ने परमात्मप्राप्तिके साधनको अव्यय अर्थात् अविनाशी कहा है -- इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्
(गीता 4। 1)।द्वौ भूतसर्गौ में भूत शब्दसे मनुष्य? देवता? असुर? राक्षस? भूत? प्रेत? पिशाच? पशु? पक्षी? कीट? पतंग? वृक्ष? लता आदि सम्पूर्ण स्थावरजंगम प्राणी लिये जा सकते हैं। परन्तु आसुर स्वभावका त्याग करनेकी विवेकशक्ति मुख्यरूपसे मनुष्यशरीरमें ही है। इसलिये मनुष्यको आसुर स्वभावका सर्वथा त्याग करना चाहिये। उसका त्याग होते ही दैवीसम्पत्ति स्वतः प्रकट हो जाती है।मनुष्यमें दैवी और आसुरी -- दोनों सम्पत्तियाँ
रहती हैं -- सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं।।(मानस 5। 40। 3)क्रूरसेक्रूर कसाईमें भी दया रहती है? चोरसेचोरमें भी साहूकारी रहती है। इसी तरह दैवीसम्पत्तिसे रहित कोई हो ही नहीं सकता क्योंकि जीवमात्र परमात्माका अंश है। उसमें दैवीसम्पत्ति स्वतःस्वाभाविक है और आसुरी सम्पत्ति अपनी बनायी हुई है। सच्चे हृदयसे परमात्माकी तरफ चलनेवाले साधकोंको आसुरीसम्पत्ति निरन्तर खटकती है? बुरी लगती है
और उसको दूर करनेका वे प्रयत्न भी करते हैं। परन्तु जो लोग भजनस्मरणके साथ आसुरीसम्पत्तिका भी पोषण करते रहते हैं अर्थात् कुछ भजनस्मरण? नित्यकर्म आदि भी कर लेते हैं और सांसारिक भोग तथा संग्रहमें भी सुख लेते हैं और उसे आवश्यक समझते हैं? वे वास्तवमें साधक नहीं कहे जा सकते। कारण कि कुछ दैव स्वभाव और कुछ आसुर स्वभाव तो नीचसेनीच प्राणीमें भी स्वाभाविक रहता है।एक विशेष ध्यान देनेकी बात है कि अहंताके अनुरूप
प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्तिके अनुसार अहंताकी दृढ़ता होती है। जिसकी अहंतामें मैं सत्यवादी हूँ ऐसा भाव होगा? वह सत्य बोलेगा और सत्य बोलनेसे उसकी सत्यनिष्ठा दृढ़ हो जायगी। फिर वह कभी असत्य नहीं बोल सकेगा। परन्तु जिसकी अहंतामें मैं संसारी हूँ और संसारके भोग भोगना और संग्रह करना मेरा काम है ऐसे भाव होंगे? उसको झूठकपट करते देरी नहीं लगेगी। छूठकपट करनेसे उसकी अहंतामें ये भाव दृढ़ हो जाते हैं कि बिना
झूठकपट किये किसीका काम नहीं चल ही नहीं सकता? जिसमें भी आजकलके जमानेमें तो ऐसा करना ही पड़ता है? इससे कोई बच नहीं सकता आदि। इस प्रकार अहंतामें दुर्भाव आनेसे ही दुराचारोंसे छूटना कठिन हो जाता है और इसी कारण लोग दुर्गुणदुराचारको छोड़ना कठिन या असम्भव मानते हैं।परमात्माका अंश होनेसे सद्भावसे रहित कोई नहीं हो सकता और शरीरके साथ अंहताममता रखते हुए दुर्भावसे सर्वथा रहित कोई नहीं हो सकता। दुर्भावोंके आनेपर
भी सद्भावका बीज कभी नष्ट नहीं होता क्योंकि सद्भाव सत् है और सत्का कभी अभाव नहीं होता -- नाभावो विद्यते सतः (2। 16)। इसके विपरीत दुर्भाव कुसङ्गसे उत्पन्न होनेवाले हैं और उत्पन्न होनेवाली वस्तु नित्य नहीं होती -- नासतो विद्यते भावः (2। 16)।मनुष्योंकी सद्भाव या दुर्भावकी मुख्यताको लेकर ही प्रवृत्ति होती है। जब सद्भावकी मुख्यता होती है? तब वह सदाचार करता है और जब दुर्भावकी मुख्यता होती है? तब वह दुराचार
करता है। तात्पर्य है कि जिसका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका हो जाता है? उसमें सद्भावकी मुख्यता हो जाती है और दुर्भाव मिटने लगते हैं और जिसका उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रहका हो जाता है? उसमें दुर्भावकी मुख्यता हो जाती है और सद्भाव छिपने लगते हैं।लोकेऽस्मिन् का तात्पर्य है कि नयेनये अधिकार पृथ्वीमण्डलमें ही मिलते हैं। पृथ्वीमण्डलमें भी भारतक्षेत्रमें विलक्षण अधिकार प्राप्त होते हैं। भारतभूमिपर जन्म लेनेवाले
मनुष्योंकी देवताओंने भी प्रशंसा की है (टिप्पणी प0 812)। कल्याणका मौका मनुष्यलोकमें ही है। इस लोकमें आकर मनुष्यको विशेष सावधानीसे दैवीसम्पत्ति जाग्रत् करनी चाहिये। भगवान्ने विशेष कृपा करके ही यह मनुष्यशरीर दिया है --,कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।(मानस 7। 44। 3) ,जिन प्राणियोंको भगवान् मनुष्य बनाते हैं? उनपर भगवान् विश्वास करते हैं कि ये अपना कल्याण (उद्धार) करेंगे। इसी आशासे वे
मनुष्यशरीर देते हैं। भगवान्ने विशेष कृपा करके मनुष्यको अपनी प्राप्तिकी सामग्री और योग्यता दे रखी है और विवेक भी दे रखा है। इसलिये लोकेऽस्मिन् पदसे विशेषरूपसे मनुष्यकी ओर ही लक्ष्य है। परन्तु भगवान् तो प्राणिमात्रमें समानरूपसे रहते हैं -- समोऽहं सर्वभूतेषु (गीता 9। 29)। जहाँ भगवान् रहते हैं? वहाँ उनकी सम्पत्ति भी रहती है? इसलिये भूतसर्गौ पद दिया है। इससे यह सिद्ध हुआ कि प्राणिमात्र भगवान्की तरफ चल
सकता है। भगवान्की तरफसे किसीको मना नहीं है।मनुष्योंमें जो सर्वथा दुराचारोंमें लगे हुए हैं? वे चाण्डाल और पशुपक्षी? कीटपतंगादि पापयोनिवालोंकी अपेक्षा भी अधिक दोषी हैं। कारण कि पापयोनिवालोंका तो पहलेके पापोंके कारण परवशतासे पापयोनिमें जन्म होता है और वहाँ उनका पुराने पापोंका फलभोग होता है परन्तु दुराचारी मनुष्य यहाँ जानबूझकर बुरे आचरणोंमें प्रवृत्त होते हैं अर्थात् नये पाप करते हैं। पापयोनिवाले तो पुराने
पापोंका फल भोगकर उन्नतिकी ओर जाते हैं? और दुराचारी नयेनये पाप करके पतनकी ओर जाते हैं। ऐसे दुराचारियोंके लिये भी भगवान्ने कहा है कि यदि अत्यन्त दुराचारी भी मेरे अनन्य शरण होकर मेरा भजन करता है? तो वह भी सदा रहनेवाली शान्तिको प्राप्त कर लेता है (9। 30 -- 31)। ऐसे ही पापीसेपापी भी ज्ञानरूपी नौकासे सब पापोंको तरकर अपना उद्धार कर लेता है (4। 36)। तात्पर्य यह कि जब दुराचारीसेदुराचारी और पापीसेपापी व्यक्ति
भी भक्ति और ज्ञान प्राप्त करके अपना उद्धार कर सकता है? तो फिर अन्य पापयोनियोंके लिये भगवान्की तरफसे मना कैसे हो सकती है इसलिये यहाँ भूत (प्राणिमात्र) शब्द दिया है।मानवेतर प्राणियोंमें भी दैवी प्रकृतिके पाये जानेकी बहुत बातें सुनने? पढ़ने तथा देखनेमें आती हैं। ऐसे कई उदाहरण आते हैं? जिसमें पशुपक्षियोंकी योनिमें भी दैवी गुण होनेकी बात आती है (टिप्पणी प0 813)। कई कुत्ते ऐसे भी देखे गये हैं? जो अमावस्या?
एकादशी आदिका व्रत रखते हैं और उस दिन अन्न नहीं खाते। सत्सङ्गमें भी मनुष्येतर प्राणियोंके आकर बैठनेकी बातें सुनी हैं। सत्सङ्गमें साँपको भी आते देखा है। गोरखपुरमें जब बारहमहीनोंका कीर्तन हुआ था? तब एक काला कुत्ता कीर्तनमण्डलके बीचमें चलता और जहाँ सत्सङ्ग होता? वहाँ बैठ जाता। ऋषिकेश(स्वर्गाश्रम) में वटवृक्षके नीचे एक साँप आया करता था। वहाँ एक सन्त थे। एक दिन उन्होंने साँपसे कहा ठहर तो वह ठहर गया। सन्तने
उसे गीता सुनायी? तो वह चुपचाप बैठ गया। गीता पूरी होते ही साँप वहाँसे चला गया और फिर कभी वहाँ नहीं आया। (इस तरहके पशुपक्षियोंमें ऐसी प्रकृति पूर्वसंस्कारवश स्वाभाविक होती है।)इस प्रकार पशुपक्षियोंमें भी दैवीसम्पत्तिके गुण देखनेमें आते हैं। हाँ? यह अवश्य है कि वहाँ दैवीसम्पत्तिके गुणोंके विकासका क्षेत्र और योग्यता नहीं है। उनके विकासका क्षेत्र और योग्यता केवल मनुष्यशरीरमें ही है।पशु? पक्षी? जड़ी? बूटी?
वृक्ष? लता आदि जितने भी जङ्गमस्थावर प्राणी हैं? उन सभीमें दैवी और आसुरीसम्पत्तिवाले प्राणी होते हैं। मनुष्यको उन सबकी रक्षा करनी ही चाहिये क्योंकि सबकी रक्षाके लिये? सबका प्रबन्ध करनेके लिये ही यह मनुष्य बनाया गया है। उनमें भी जो सात्त्विक पशु? पक्षी? जड़ी? बूटी आदि हैं? उनकी तो विशेषतासे रक्षा करनी चाहिये क्योंकि उनकी रक्षासे हमारेमें दैवीसम्पत्ति बढ़ती है। जैसे? गोमाता हमारी पूजनीया है तो हमें उसकी
रक्षा और पालन करना चाहिये क्योंकि गाय सम्पूर्ण सृष्टिका कारण है -- गावो विश्वस्य मातरः। गायके घीसे ही यज्ञ होता है भैंस आदिके घीसे नहीं। यज्ञसे वर्षा होती है। वर्षासे अन्न और अन्नसे प्राणी पैदा होते हैं। उन प्राणियोंमें खेतीके लिये बैलोंकी जरूरत होती है। वे बैल गायोंके होते हैं। बैलोंसे खेती होती है अर्थात् बैलोंसे हल आदि जोतकर तथा कुएँ आदिके जलसे सींचकर खेतीकी जाती है। खेतीसे अन्न? वस्त्र आदि निर्वाहकी
चीजें पैदा होती हैं? जिनसे मनुष्य? पशु आदि सभीका जीवननिर्वाह होता है। निर्वाहमें भी गायके घीदूध हमारे खानेपीनेके काम आते हैं। उन घीदूधसे हमारे शरीरमें बल और अन्तःकरणमें सात्त्विक भाव बढ़ते हैं। इसी तरहसे जितनी जड़ीबूटियाँ हैं? उनमेंसे सात्त्विक जड़ीबूटीसे कायाकल्प होता है? रोग दूर होता है और शरीर पुष्ट होता है। इसलिये हम लोगोंको सात्त्विक पशु? पक्षी? जड़ीबूटी आदिकी विशेष रक्षा करनी चाहिये? जिससे हमारे
इहलोक और परलोक दोनों सुधर जायँ।दैवो विस्तरशः प्रोक्तः -- भगवान् कहते हैं कि दैवीसम्पत्तिका मैंने विस्तारसे वर्णन कर दिया। इसी अध्यायके पहले श्लोकमें नौ? दूसरे श्लोकमें ग्यारह और तीसरे श्लोकमें छः -- इस तरह दैवीसम्पत्तिके कुल छब्बीस लक्षणोंका वर्णन किया गया है। इससे पहले भी गुणातीतके लक्षणोंमें (14। 22 -- 25)? ज्ञानके बीस साधनोंमें (13। 7 -- 11)? भक्तोंके लक्षणोंमें (12। 13 -- 19)? कर्मयोगीके लक्षणोंमे
(6। 7 -- 9) और स्थितप्रज्ञके लक्षणोंमें (2। 55 -- 71) दैवीसम्पत्तिका विस्तारसे वर्णन हुआ है।आसुरं पार्थ मे श्रृणु -- भगवान् कहते हैं कि अब तू मुझसे आसुरीसम्पत्तिको विस्तारपूर्वक सुन अर्थात् जो मनुष्य केवल प्राणपोषणपरायण होते हैं? उनका स्वभाव कैसा होता है -- यह मेरेसे सुन। सम्बन्ध -- भगवान्से विमुख मनुष्यमें आसुरीसम्पत्ति किस क्रमसे (टिप्पणी प0 814) आती है? उसका आगेके श्लोकमें वर्णन करते हैं।