।।17.19।।

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्।।17.19।।

mūḍha-grāheṇātmano yat pīḍayā kriyate tapaḥ parasyotsādanārthaṁ vā tat tāmasam udāhṛitam

mūḍha—those with confused notions; grāheṇa—with endeavor; ātmanaḥ—one’s own self; yat—which; pīḍayā—torturing; kriyate—is performed; tapaḥ—austerity; parasya—of others; utsādana-artham—for harming; vā—or; tat—that; tāmasam—in the mode of ignorance; udāhṛitam—is described to be

अनुवाद

।।17.19।।जो तप मूढ़तापूर्वक हठसे अपनेको पीड़ा देकर अथवा दूसरोंको कष्ट देनेके लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।

टीका

।।17.19।। व्याख्या --   मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः -- तामस तपमें मूढ़तापूर्वक आग्रह होनेसे अपनेआपको पीड़ा देकर तप किया जाता है। तामस मनुष्योंमें मूढ़ताकी प्रधानता रहती है अतः जिसमें शरीरको? मनको कष्ट हो? उसीको वे तप मानते हैं।परस्योत्सादनार्थं वा -- अथवा वे दूसरोंको दुःख देनेके लिये तप करते हैं। उनका भाव रहता है कि शक्ति प्राप्त करनेके लिये तप (संयम आदि) करनेमें मुझे भले ही कष्ट सहना

पड़े? पर दूसरोंको नष्टभ्रष्ट तो करना ही है। तामस मनुष्य दूसरोंको दुःख देनेके लिये उन तीन (कायिक? वाचिक और मानसिक) तपोंके आंशिक भागके सिवाय मनमाने ढंगसे उपवास करना? शीतघामको सहना आदि तप भी कर सकता है।तत्तामसमुदाहृतम् -- तामस मनुष्यका उद्देश्य ही दूसरोंको कष्ट देनेका? उनका अनिष्ट करनेका रहता है। अतः ऐसे उद्देश्यसे किया गया तप तामस कहलाता है।[सात्त्विक मनुष्य फलकी इच्छा न रखकर परमश्रद्धासे तप करता है?

इसलिये वास्तवमें वही मनुष्य कहलानेलायक हैं। राजस मनुष्य सत्कार? मान? पूजा तथा दम्भके लिये तप करता है? इसलिये वह मनुष्य कहलानेलायक नहीं है क्योंकि सत्कार? मान आदि तो पशुपक्षियोंको भी प्रिय लगते हैं और वे बेचारे दम्भ भी नहीं करते तामस मनुष्य तो पशुओंसे भी नीचे हैं क्योंकि पशुपक्षी स्वयं दुःख पाकर दूसरोंको दुःख तो नहीं देते? पर यह तामस मनुष्य तो स्वयं दुःख पाकर दूसरोंको दुःख देता है।] सम्बन्ध --   अब भगवान् आगेके तीन श्लोकोंमें क्रमशः सात्त्विक? राजस और तामस दानके लक्षण बताते हैं।