।।17.21।।

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।।17.21।।

yat tu pratyupakārārthaṁ phalam uddiśhya vā punaḥ dīyate cha parikliṣhṭaṁ tad dānaṁ rājasaṁ smṛitam

yat—which; tu—but; prati-upakāra-artham—with the hope of a return; phalam—reward; uddiśhya—expectation; vā—or; punaḥ—again; dīyate—is given; cha—and; parikliṣhṭam—reluctantly; tat—that; dānam—charity; rājasam—in the mode of passion; smṛitam—is said to be

अनुवाद

।।17.21।।किन्तु जो दान प्रत्युपकारके लिये अथवा फलप्राप्तिका उद्देश्य बनाकर फिर क्लेशपूर्वक दिया जाता है, वह दान राजस कहा जाता है।

टीका

।।17.21।। व्याख्या --   यत्तु प्रत्युपकारार्थम् -- राजस दान प्रत्युपकारके लिये दिया जाता है जैसे -- राजस पुरुष किसी विशेष अवसरपर दानकी चीजोंको गिन करके निकालता है? तो वह विचार करता है कि हमारे सगेसम्बन्धीके जो कुलपुरोहित हैं? उनको हम दान करेंगे? जिससे कि हमारे सगेसम्बन्धी हमारे कुलपुरोहितको दान करें और इस प्रकार हमारे कुलपुरोहितके पास धन आ जायगा। अमुक पण्डितजी बड़े अच्छे हैं और ज्योतिष भी जानते हैं?

उनको हम दान करेंगे? जिससे वे कभी यात्राका? पुत्रोंका तथा कन्याओंके विवाहका? नया मकान बनवानेका? कुआँ खुदवानेका मुहूर्त निकाल देंगे। हमारे सम्बन्धी हैं अथवा हमारा हित करनेवाले हैं? उनको हम सहायतारूपमें पैसे देंगे? तो वे कभी हमारी सहायता करेंगे? हमारा हित करेंगे। हमें दवाई देनेवाले जो पण्डितजी हैं उनको हम दान करेंगे क्योंकि दानसे राजी होकर वे हमें अच्छीअच्छी दवाइयाँ देंगे? आदिआदि। इस प्रकार प्रतिफलकी

भावना रखकर अर्थात् इस लोकके साथ सम्बन्ध जोड़कर जो दान किया जाता है? वह प्रत्युपकारार्थ कहा जाता है।फलमुद्दिश्य वा पुनः -- फलका उद्देश्य रखकर अर्थात् परलोकके साथ सम्बन्ध जोड़कर जो दान किया जाता है? उसमें भी राजस मनुष्य देश (गङ्गा? यमुना? कुरुक्षेत्र आदि)? काल (अमावस्या? पूर्णिमा? ग्रहण आदि) और पात्र (वेदपाठी ब्राह्मण आदि) को देखेगा तथा शास्त्रीय विधिविधानको देखेगा परन्तु इस प्रकार विचारपूर्वक दान

करनेपर भी फलकी कामना होनेसे वह दान राजस हो जाता है। अब उसके लिये दूसरे विधिविधानका वर्णन करनेकी भगवान्ने आवश्यकता नहीं समझी? इसलिये राजस दानमें देशे काले च पात्रे पदोंका प्रयोग नहीं किया। यहाँ पुनः पद कहनेका तात्पर्य है कि जिससे कुछ उपकार पाया है अथवा जिससे भविष्यमें कुछनकुछ मिलनेकी सम्भावना है? उसका विचार राजस पुरुष पहले करता है? फिर पीछे दान देता है।दीयते च परिक्लिष्टम् -- राजस दान बहुत क्लेशपूर्वक

दिया जाता है जैसे -- वक्त आ गया है? इसलिये देना पड़ रहा है। इतनी चीजें देंगे तो इतनी चीजें कम हो जायेंगी। इतना धन देंगे तो इतना धन कम हो जायगा। वे समयपर हमारे काम आते हैं? इसलिये उनको देना पड़ रहा है। इतनेमें ही काम चल जाय तो बहुत अच्छी बात है। इतनेसे काम तो चल ही जायगा? फिर ज्यादा क्यों दें ज्यादा देंगे तो और कहाँसे लायेंगे और ज्यादा देनेसे लेनेवालेका स्वभाव बिगड़ जायगा। ज्यादा देनेसे हमारेको घाटा

लग जायेगा? तो काम कैसे चलेगा पर इतना तो देना ही पड़ रहा है? आदिआदि। इस प्रकार राजस मनुष्य दान तो थोड़ासा देते हैं? पर कसाकसी करके देते हैं।तद्दानं राजसं स्मृतम् -- उपर्युक्त प्रकारसे दिया जानेवाला दान राजस कहा गया है।