Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु।।17.7।।

āhāras tv api sarvasya tri-vidho bhavati priyaḥ yajñas tapas tathā dānaṁ teṣhāṁ bhedam imaṁ śhṛiṇu

0:00 / --:--

Word Meanings

āhāraḥfood
tuindeed
apieven
sarvasyaof all
tri-vidhaḥof three kinds
bhavatiis
priyaḥdear
yajñaḥsacrifice
tapaḥausterity
tathāand
dānamcharity
teṣhāmof them
bhedamdistinctions
imamthis
śhṛiṇuhear
•••

अनुवाद

।।17.7।।आहार भी सबको तीन प्रकारका प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, दान और तप भी तीन प्रकारके होते हैं अर्थात् शास्त्रीय कर्मोंमें भी तीन प्रकारकी रुचि होती है, तू उनके इस भेदको सुन।

•••

टीका

।।17.7।। व्याख्या --   आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः -- चौथे श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनके प्रश्नके अनुसार मनुष्योंकी निष्ठाकी परीक्षाके लिये सात्त्विक? राजस और तामस -- तीन तरहके यजन बताये। परन्तु जिसकी श्रद्धा? रुचि? प्रियता यजनपूजनमें नहीं है? उनकी निष्ठाकी पहचान कैसे हो इसके लिये बताया कि जिनकी यजनपूजनमें श्रद्धा नहीं है? ऐसे मनुष्योंको भी शरीरनिर्वाहके लिये भोजन तो करना ही पड़ता है? चाहे

वे नास्तिक हों? चाहे आस्तिक हों? चाहे वैदिक अथवा ईसाई? पारसी? यहूदी? यवन आदि किसी सम्प्रदायके हों। उन सबके लिये यहाँ आहारस्त्वपि पद देकर कहा है कि निष्ठाकी पहचानके लिये केवल यजनपूजन ही नहीं है? प्रत्युत भोजनकी रुचिसे ही उनकी निष्ठाकी पहचान हो जायगी।मनुष्यका मन स्वाभाविक ही जिस भोजनमें ललचाता है अर्थात् जिस भोजनकी बात सुनकर? उसे देखकर और उसे चखकर मन आकृष्ट होता है? उसके अनुसार उसकी सात्त्विकी? राजसी

या तामसी निष्ठा मानी जाती है। यहाँ कोई ऐसा भी कह सकता है कि सात्त्विक? राजस और तामस आहार कैसाकैसा होता है -- इसे बतानेके लिये यह प्रकरण आया है। स्थूलदृष्टिसे देखनेपर तो ऐसा ही दीखता है परन्तु विचारपूर्वक गहराईसे देखनेपर यह बात दीखती नहीं। वास्तवमें यहाँ आहारका वर्णन नहीं है? प्रत्युत आहारीकी रुचिका वर्णन है। अतः आहारीकी श्रद्धाकी पहचान कैसे हो यह बतानेके लिये ही यह प्रकरण आया है।यहाँ सर्वस्य और प्रियः

पद यह बतानेके लिये आये हैं कि सामान्यरूपसे सम्पूर्ण मनुष्योंमें एकएककी किसकिस भोजनमें रुचि होती है? जिससे उनकी सात्त्विकी? राजसी और तामसी निष्ठाकी पहचान हो। ऐसे ही यज्ञस्तपस्था दानम् (टिप्पणी प0 841.1) पद यह बतानेके लिये आये हैं कि जितने भी शास्त्रीय कर्म हैं? उनमें भी उन मनुष्योंकी यज्ञ? तप आदि किसकिस कर्ममें कैसीकैसी रुचि -- प्रियता होती है। यहाँ तथा कहनेका तात्पर्य यह है कि जैसे पूजन तीन तरहका

होता है और जैसे आहार तीन तरहका प्रिय होता है?,इसी तरह शास्त्रीय यज्ञ? तप आदि कर्म भी तीन तरहके होते हैं। इससे यहाँ एक और बात भी सिद्ध होती है कि शास्त्र? सत्सङ्ग? विवेचन? वार्तालाप? कहानी? पुस्तक? व्रत? तीर्थ? व्यक्ति आदि जोजो भी सामने आयेंगे? उनमें जो सात्त्विक होगा वह सात्त्विक मनुष्यको? जो राजस होगा? वह राजस मनुष्यको और जो तामस होगा? वह तामस मनुष्यको प्रिय लगेगा।तेषां भेदमिमं श्रृणु -- यज्ञ? तप

और दानके भेद सुनो अर्थात् मनुष्यकी स्वाभाविक रुचि? प्रवृत्ति और प्रसन्नता किसकिसमें होती है? उसको तुम सुनो। जैसे अपनी रुचिके अनुसार कोई ब्राह्मणको दान देना पसंद करता है? तो कोई अन्य साधारण मनुष्यको दान देना ही पसंद करता है। कोई शुद्ध आचरणवाले व्यक्तियोंके साथ मित्रता करते हैं? तो कोई जिनका खानपान? आचरण आदि शुद्ध नहीं हैं? ऐसे मनुष्योंके साथ ही मित्रता करते हैं? आदिआदि (टिप्पणी प0 841.2)।तात्पर्य यह

कि सात्त्विक मनुष्योंकी रुचि सात्त्विक खानपान? रहनसहन? कार्य? समाज? व्यक्ति आदिमें होती है और उन्हींका सङ्ग करना उनको अच्छा लगता है। राजस मनुष्योंकी रुचि राजस खानपान? रहनसहन? कार्य? समाज? व्यक्ति आदिमें होती है और उन्हींका सङ्ग उनको अच्छा लगता है। तामस मनुष्योंकी रुचि तामस खानपान? रहनसहन आदिमें तथा शास्त्रनिषिद्ध आचरण करनेवाले नीच मनुष्योंके साथ उठनेबैठने? खानेपीने? बातचीत करने? साथ रहने? मित्रता करने आदिमें होती है और उन्हींका सङग उनको अच्छा लगता है तथा वैसे ही आचरणोंमें उनकी प्रवृत्ति होती है।,

भगवद गीता 17.7 - अध्याय 17 श्लोक 7 हिंदी और अंग्रेजी