।।18.13।।

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।18.13।।

pañchaitāni mahā-bāho kāraṇāni nibodha me sānkhye kṛitānte proktāni siddhaye sarva-karmaṇām

pañcha—five; etāni—these; mahā-bāho—mighty-armed one; kāraṇāni—causes; nibodha—listen; me—from me; sānkhye—of Sānkya; kṛita-ante—stop reactions of karmas; proktāni—explains; siddhaye—for the accomplishment; sarva—all; karmaṇām—of karmas

अनुवाद

।।18.13।।हे महाबाहो ! कर्मोंका अन्त करनेवाले सांख्यसिद्धान्तमें सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिके लिये ये पाँच कारण बताये गये हैं, इनको तू मेरेसे समझ।

टीका

।।18.13।। व्याख्या --   पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि -- हे महाबाहो जिसमें सम्पूर्ण कर्मोंका अन्त हो जाता है? ऐसे सांख्यसिद्धान्तमें सम्पूर्ण विहित और निषिद्ध कर्मोंके होनेमें पाँच हेतु बताये गये हैं। स्वयं (स्वरूप) उन कर्मोंमें हेतु नहीं है।निबोध मे -- इस अध्यायमें भगवान्ने जहाँ सांख्यसिद्धान्तका वर्णन आरम्भ किया है? वहाँ निबोध क्रियाका प्रयोग किया है (18। 13? 50)? जब कि दूसरी जगह श्रृणु क्रियाका प्रयोग

किया है (18। 4? 19? 29? 36? 45? 64)। तात्पर्य यह है कि सांख्यसिद्धान्तमें तो निबोध पदसे अच्छी तरह समझनेकी बात कही है और दूसरी जगह श्रृणु पदसे सुननेकी बात कही है। अतः सांख्यसिद्धान्तको गहरी रीतिसे समझना चाहिये। अगर उसे अपनेआप (स्वयं) से गहरी रीतिसे समझा जाय? तो तत्काल तत्त्वका अनुभव हो जाता है।सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् -- कर्म चाहे शास्त्रविहित हों? चाहे शास्त्रनिषिद्ध हों?

चाहे शारीरिक हों? चाहे मानसिक हों? चाहे वाचिक हों? चाहे स्थूल हों और चाहे सूक्ष्म हों -- इन सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिके लिये पाँच हेतु कहे गये हैं। जब पुरुषका इन कर्मोंमें कर्तृत्व रहता है? तब कर्मसिद्धि और कर्मसंग्रह दोनों होते हैं? और जब पुरुषका इन कर्मोंके होनेमें कर्तृत्व नहीं रहता? तब कर्मसिद्धि तो होती है? पर कर्मसंग्रह नहीं होता? प्रत्युत क्रियामात्र होती है। जैसे? संसारमात्रमें परिवर्तन होता

है अर्थात् नदियाँ बहती हैं? वायु चलती है? वृक्ष बढ़ते हैं? आदिआदि क्रियाएँ होती रहती है? परन्तु इन क्रियाओँसे कर्मसंग्रह नहीं होता अर्थात् ये क्रियाएँ पापपुण्यजनक अथवा बन्धनकारक नहीं होतीं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्तृत्वाभिमानसे ही कर्मसिद्धि और कर्मसंग्रह होता है। कर्तृत्वाभिमान मिटनेपर क्रियामात्रमें अधिष्ठान? करण? चेष्टा और दैव -- ये चार हेतु ही होते हैं (गीता 18। 14)।यहाँ सांख्यसिद्धान्तका वर्णन

हो रहा है। सांख्यसिद्धान्तमें विवेकविचारकी प्रधानता होती है? फिर भगवान्ने सर्वकर्मणां सिद्धये वाली कर्मोंकी बात यहाँ क्यों छेड़ी कारण कि अर्जुनके सामने युद्धका प्रसङ्ग है। क्षत्रिय होनेके नाते युद्ध उनका कर्तव्यकर्म है। इसलिये कर्मयोगसे अथवा सांख्ययोगसे ऐसे कर्म करने चाहिये? जिससे कर्म करते हुए भी कर्मोंसे सर्वथा निर्लिप्त रहे -- यह बात भगवान्को कहनी है। अर्जुनने सांख्यका तत्त्व पूछा है? इसलिये भगवान्

सांख्यसिद्धान्तसे कर्म करनेकी बात कहना आरम्भ करते हैं।अर्जुन स्वरूपसे कर्मोंका त्याग करना चाहते थे अतः उनको यह समझाना था कि कर्मोंका ग्रहण और त्याग -- दोनों ही कल्याणमें हेतु नहीं हैं। कल्याणमें हेतु तो परिवर्तनशील नाशवान् प्रकृतिसे अपरिवर्तनशील अविनाशी अपने स्वरूपका सम्बन्धविच्छेद ही है। उस सम्बन्धविच्छेदकी दो प्रक्रियाएँ हैं -- कर्मयोग और सांख्ययोग। कर्मयोगमें तो फलका अर्थात् ममताका त्याग मुख्य

है और सांख्ययोगमें अहंताका त्याग मुख्य है। परन्तु ममताके त्यागसे अहंताका और अहंताके त्यागसे ममताका त्याग स्वतः हो जाता है। कारण कि अहंतामें भी ममता होती है जैसे -- मेरी बात रहे? मेरी बात कट न जाय -- यह मैंपनके साथ भी मेरापन है। इसलिये ममता(मेरापन)को छोड़नेसे अहंता(मैंपन) छूट जाती है (टिप्पणी प0 895)। ऐसे ही पहले अहंता होती है? तब ममता होती है अर्थात् पहले मैं होता है? तब मेरापन होता है। परन्तु जहाँ

अहंता(मैंपन)का ही त्याग कर दिया जायगा? वहाँ ममता (मेरापन) कैसे रहेगी वह भी छूट ही जायगी। सम्बन्ध --   सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिमें पाँच हेतु कौनसे हैं अब यह बताते हैं।