।।18.4।।
निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः।।18.4।।
niśhchayaṁ śhṛiṇu me tatra tyāge bharata-sattama tyāgo hi puruṣha-vyāghra tri-vidhaḥ samprakīrtitaḥ
niśhchayam—conclusion; śhṛiṇu—hear; me—my; tatra—there; tyāge—about renunciation of desires for enjoying the fruits of actions; bharata-sat-tama—best of the Bharatas; tyāgaḥ—renunciation of desires for enjoying the fruits of actions; hi—indeed; puruṣha-vyāghra—tiger amongst men; tri-vidhaḥ—of three kinds; samprakīrtitaḥ—declared
अनुवाद
।।18.4।। हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! तू संन्यास और त्याग -- इन दोनोंमेंसे पहले त्यागके विषयमें मेरा निश्चय सुन; क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! त्याग तीन प्रकारका कहा गया है।
टीका
।।18.4।। व्याख्या -- निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम -- हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन अब मैं संन्यास और त्याग -- दोनोंमेंसे पहले त्यागके विषयमें अपना मत कहता हूँ? उसको तुम सुनो।त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः -- हे पुरुषव्याघ्र त्याग तीन तरहका कहा गया है -- सात्त्विक? राजस और तामस। वास्तवमें भगवान्के मतमें सात्त्विक त्याग ही त्याग है परन्तु उसके साथ राजस और तामस त्यागका
भी वर्णन करनेका तात्पर्य यह है कि उसके बिना भगवान्के अभीष्ट सात्त्विक त्यागकी श्रेष्ठता स्पष्ट नहीं होती क्योंकि परीक्षा या तुलना करके किसी भी वस्तुकी श्रेष्ठता सिद्ध करनेके लिये दूसरी वस्तुएँ सामने रखनी ही पड़ती हैं।तीन प्रकारका त्याग बतानेका तात्पर्य यह भी है कि साधक सात्त्विक त्यागको ग्रहण करे और राजस तथा तामस त्यागका त्याग करे।