।।18.48।।

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।

saha-jaṁ karma kaunteya sa-doṣham api na tyajet sarvārambhā hi doṣheṇa dhūmenāgnir ivāvṛitāḥ

saha-jam—born of one’s nature; karma—duty; kaunteya—Arjun, the son of Kunti; sa-doṣham—with defects; api—even if; na tyajet—one should not abandon; sarva-ārambhāḥ—all endeavors; hi—indeed; doṣheṇa—with evil; dhūmena—with smoke; agniḥ—fire; iva—as; āvṛitāḥ—veiled

अनुवाद

।।18.48।।हे कुन्तीनन्दन ! दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँसे अग्निकी तरह किसी-न-किसी दोषसे युक्त हैं।

टीका

।।18.48।। व्याख्या --   [पूर्वश्लोकमें यह कहा गया कि स्वभावके अनुसार शास्त्रोंने जो कर्म नियत किये हैं? उन कर्मोंको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि स्वभावनियत कर्मोंमें भी पापक्रिया होती है। अगर पापक्रिया न होती तो पापको प्राप्त नहीं होता यह कहना नहीं बनता। अतः यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो सहज कर्म हैं? उनमें कोई दोष भी आ जाय तो भी उनका त्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि सबकेसब

कर्म धुएँसे अग्निकी तरह दोषसे आवृत हैं। ]सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् -- स्वभावनियतकर्म सहजकर्म कहलाते हैं जैसे -- ब्राह्मणके शम? दम आदि क्षत्रियके शौर्य? तेज आदि वैश्यके कृषि? गौरक्ष्य आदि और शूद्रके सेवाकर्म -- ये सभी सहजकर्म हैं। जन्मके बाद शास्त्रोंने पूर्वके गुण और कर्मोंके अनुसार जिस वर्णके लिये जिन कर्मोंकी आज्ञा दी है? वे शास्त्रनियत कर्म भी सहजकर्म कहलाते हैं जैसे ब्राह्मणके लिये

यज्ञ करना और कराना? पढ़ना और पढ़ाना आदि क्षत्रियके लिये यज्ञ करना? दान करना आदि वैश्यके लिये यज्ञ करना आदि और शूद्रके लिये सेवा।सहज कर्ममें ये दोष हैं --,(1) परमात्मा और परमात्माका अंश -- ये दोनों ही स्व हैं तथा प्रकृति और प्रकृतिका कार्य शरीर आदि -- ये दोनों ही पर हैं। परन्तु परमात्माका अंश स्वयं प्रकृतिके वश होकर परतन्त्र हो जाता है अर्थात् क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है और उस क्रियाको यह अपनेमें

मान लेता है तो परतन्त्र हो जाता है। यह प्रकृतिके परतन्त्र होना ही महान् दोष है।(2) प्रत्येक कर्ममें कुछनकुछ आनुषङ्गिक अनिवार्य हिंसा आदि दोष होते ही हैं।(3) कोई भी कर्म किया जाय? वह कर्म किसीके अनुकूल और किसीके प्रतिकूल होता ही है। किसीके प्रतिकूल होना भी दोष है।(4) प्रमाद आदि दोषोंके कारण कर्मके करनेमें कमी रह जाना अथवा करनेकी विधिमें भूल हो जाना भी दोष है।अपने सहजकर्ममें दोष भी हो? तो भी उसको नहीं

छोड़ना चाहिये। इसका तात्पर्य है कि जैसे ब्राह्मणके कर्म जितने सौम्य हैं? उतने ब्राह्मणेतर वर्णोंके कर्म सौम्य नहीं हैं। परन्तु सौम्य न होनेपर भी वे कर्म दोषी नहीं,माने जाते अर्थात् ब्राह्मणके सहज कर्मोंकी अपेक्षा क्षत्रिय? वैश्य आदिके सहज कर्मोंमें गुणोंकी कमी होनेपर भी उस कमीका दोष नहीं लगता और अनिवार्य हिंसा आदि भी नहीं लगते? प्रत्युत उनका पालन करनेसे लाभ होता है। कारण कि वे कर्म उनके स्वभावके अनुकूल

होनेसे करनेमें सुगम हैं और शास्त्रविहित हैं।ब्राह्मणके लिये भिक्षा बतायी गयी है। देखनेमें भिक्षा निर्दोष दीखती है? पर उसमें भी दोष आ जाते हैं। जैसे किसी गृहस्थके घरपर कोई भिक्षुक खड़ा है और उसी समय दूसरा भिक्षुक वहाँ आ जाता है तो गृहस्थको भार लगता है। भिक्षुकोंमें परस्पर ईर्ष्या होनेकी सम्भावना रहती है। भिक्षा देनेवालेके घरमें पूरी तैयारी नहीं है तो उसको भी दुःख होता है। यदि कोई गृहस्थ भिक्षा देना

नहीं चाहता और उसके घरपर भिक्षुक चला जाय तो उसको बड़ा कष्ट होता है। अगर वह भिक्षा देता है तो खर्चा होता है और नहीं देता है तो भिक्षुक निराश होकर चला जाता है। इससे उस गृहस्थको पाप लगता है और बेचारा उसमें फँस जाता है। इस प्रकार यद्यपि भिक्षामें भी दोष होते हैं? तथापि ब्राह्मणको उसे छोड़ना नहीं चाहिये।क्षत्रियके लिये न्याययुक्त युद्ध प्राप्त हो जाय तो उसको करनेसे क्षत्रियको पाप नहीं लगता। यद्यपि युद्धरूप

कर्ममें दोष हैं क्योंकि उसमें मनुष्योंको मारना पड़ता है? तथापि क्षत्रियके लिये सहज और शास्त्रविहित होनेसे दोष नहीं लगता। ऐसे ही वैश्यके लिये खेती करना बताया गया है। खेती करनेमें बहुतसे जन्तुओंकी हिंसा होती है। परन्तु वैश्यके लिये सहज और शास्त्रविहित होनेसे हिंसाका इतना दोष नहीं लगता। इसलिये सहज कर्मोंको छोड़ना नहीं चाहिये।सहज कर्मोंको करनेमें दोष (पाप) नहीं लगता -- यह बात ठीक है परन्तु इन साधारण सहज

कर्मोंसे मुक्ति कैसे हो जायगी वास्तवमें मुक्ति होनेमें सहज कर्म बाधक नहीं हैं। कामना? आसक्ति? स्वार्थ? अभिमान आदिसे ही बन्धन होता है और पाप भी इन कामना आदिके कारणसे ही होते हैं। इसलिये मनुष्यको निष्कामभावपूर्वक भगवत्प्रीत्यर्थ सहज कर्मोंको करना चाहिये? तभी बन्धन छूटेगा।सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः -- जितने भी कर्म हैं? वे सबकेसब सदोष ही हैं जैसे -- आग सुलगायी जाय तो आरम्भमें धुआँ होता

ही है। कर्म करनेमें देश? काल? घटना? परिस्थिति आदिकी परतन्त्रता और दूसरोंकी प्रतिकूलता भी दोष है? परन्तु स्वभावके अनुसार शास्त्रोंने आज्ञा दी है। उस आज्ञाके अनुसार निष्कामभावपूर्वक कर्म करता हुआ मनुष्य पापका भागी नहीं होता। इसीसे भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि भैया तू जिस युद्धरूप क्रियाको घोर कर्म मान रहा है? वह तेरा धर्म है क्योंकि न्यायसे प्राप्त हुए युद्धको करना क्षत्रियोंका धर्म है? इसके

सिवाय क्षत्रियके लिये दूसरा कोई श्रेयका साधन नहीं है (गीता 2। 31)। सम्बन्ध --   अब भगवान् सांख्ययोगका प्रकरण आरम्भ करते हुए पहले सांख्ययोगके अधिकारीका वर्णन करते हैं।