।।18.7।।

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।18.7।।

niyatasya tu sannyāsaḥ karmaṇo nopapadyate mohāt tasya parityāgas tāmasaḥ parikīrtitaḥ

niyatasya—of prescribed duties; tu—but; sanyāsaḥ—renunciation; karmaṇaḥ—actions; na—never; upapadyate—to be performed; mohāt—deluded; tasya—of that; parityāgaḥ—renunciation; tāmasaḥ—in the mode of ignorance; parikīrtitaḥ—has been declared

अनुवाद

।।18.7।।नियत कर्मका तो त्याग करना उचित नहीं है। उसका मोहपूर्वक त्याग करना तामस कहा गया है।

टीका

।।18.7।। व्याख्या --   [तीन तरहके त्यागका वर्णन भगवान् इसलिये करते हैं कि अर्जुन कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना चाहते थे -- श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके (गीता 2। 5) अतः त्रिविध त्याग बताकर अर्जुनको चेत कराना था? और आगेके लिये मनुष्यमात्रको यह बताना था कि नियत कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना भगवान्को मान्य (अभीष्ट) नहीं है। भगवान् तो सात्त्विक त्यागको ही वास्तवमें त्याग मानते हैं। सात्त्विक त्यागसे संसारके

सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद हो जाता है।दूसरी बात? सत्रहवें अध्यायमें भी भगवान् गुणोंके अनुसार श्रद्धा? आहार आदिके तीनतीन भेद कहकर आये हैं? इसलिये यहाँ भी अर्जुनद्वारा त्यागका तत्त्व पूछनेपर भगवान्ने त्यागके तीन भेद कहे हैं।]नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने त्यागके विषयमें अपना जो निश्चित उत्तम मत बताया है? उससे यह तामस त्याग बिलकुल ही विपरीत है और सर्वथा निकृष्ट है? यह

बतानेके लिये यहाँ तु पद आया है।नियत कर्मोंका त्याग करना कभी भी उचित नहीं है क्योंकि वे तो अवश्यकर्तव्य हैं। बलिवैश्वदेव आदि यज्ञ करना? कोई अतिथि आ जाय तो गृहस्थधर्मके अनुसार उसको अन्न? जल आदि देना? विशेष पर्वमें या श्राद्धतर्पणके दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराना और दक्षिणा देना? अपने वर्णआश्रमके अनुसार प्रातः और सांयकालमें सन्ध्या करना आदि कर्मोंको न मानना और न करना ही नियत कर्मोंका त्याग है।मोहात्तस्य

परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः -- ऐसे नियत कर्मोंको मूढ़तासे अर्थात् बिना विवेकविचारके छोड़ देना तामस त्याग कहा जाता है। सत्सङ्ग? सभा? समिति आदिमें जाना आवश्यक था? पर आलस्यमें पड़े रहे? आराम करने लग गये अथवा सो गये घरमें मातापिता बीमार हैं? उनके लिये वैद्यको बुलाने या औषधि लानेके लिये जा रहे थे? रास्तेमें कहींपर लोग ताशचौपड़ आदि खेल रहे थे? उनको देखकर खुद भी खेलमें लग गये और वैद्यको बुलाना या ओषधि लाना

भूल गये कोर्टमें मुकदमा चल रहा है? उसमें हाजिर होनेके समय हँसीदिल्लगी? खेलतमाशा आदिमें लग गये और समय बीत गया शरीरके लिये शौचस्नान आदि जो आवश्यक कर्तव्य हैं? उनको आलस्य और प्रमादके कारण छोड़ दिया -- यह सब तामस त्यागके उदाहरण हैं।विहित कर्म और नियत कर्ममें क्या अन्तर है शास्त्रोंने जिन कर्मोंको करनेकी आज्ञा दी है? वे सभी विहित कर्म कहलाते हैं। उन सम्पूर्ण विहित कर्मोंका पालन एक व्यक्ति कर ही नहीं सकता

क्योंकि शास्त्रोंमें सम्पूर्ण वारों तथा तिथियोंके व्रतका विधान आता है। यदि एक ही मनुष्य सब वारोंमें या सब तिथियोंमें व्रत करेगा तो फिर वह भोजन कब करेगा इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्यके लिये सभी विहित कर्म लागू नहीं होते। परन्तु उन विहित कर्मोंमें भी वर्ण? आश्रम और परिस्थितिके अनुसार जिसके लिये जो कर्तव्य आवश्यक होता है? उसके लिये वह नियत कर्म कहलाता है। जैसे ब्राह्मण? क्षत्रिय? वैश्य और शूद्र -- चारों

वार्णोंमें जिसजिस वर्णके लिये जीविका और शरीरनिर्वाहसम्बन्धी जितने भी नियम हैं? उसउस वर्णके लिये वे सभी नियत कर्म हैं।नियत कर्मोंका मोहपूर्वक त्याग करनेसे वह त्याग तामस हो जाता है तथा सुख और आरामके लिये त्याग,करनेसे वह त्याग राजस हो जाता है। सुखेच्छा? फलेच्छा तथा आसक्तिका त्याग करके नियत कर्मोंको करनेसे वह त्याग सात्त्विक हो जाता है। तात्पर्य यह है कि मोहमें उलझ जाना तामस पुरुषका स्वभाव है? सुखआराममें

उलझ जाना राजस पुरुषका स्वभाव है और इन दोनोंसे रहित होकर सावधानीपूर्वक निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करना सात्त्विक पुरुषका स्वभाव है। इस सात्त्विक स्वभाव अथवा सात्त्विक त्यागसे ही कर्म और कर्मफलसे सम्बन्धविच्छेद होता है। राजस और तामस त्यागसे नहीं क्योंकि राजस और तामस त्याग वास्तवमें त्याग है ही नहीं।लोग सामान्य रीतिसे स्वरूपसे कर्मोंको छोड़ देनेको ही त्याग मानते हैं क्योंकि उन्हें प्रत्यक्षमें वही त्याग

दीखता है। कौन व्यक्ति कौनसा काम किस भावसे कर रहा है? इसका उन्हें पता नहीं लगता। परन्तु भगवान् भीतरकी कामनाममताआसक्तिके त्यागको ही त्याग मानते हैं क्योंकि ये ही जन्ममरणके कारण हैं (गीता 13। 21)।यदि बाहरके त्यागको ही असली त्याग माना जाय तो सभी मरनेवालोंका कल्याण हो जाना चाहिये क्योंकि उनकी तो सम्पूर्ण वस्तुएँ छूट जाती हैं और तो क्या? अपना कहलानेवाला शरीर भी छूट जाता है और उनको वे वस्तुएँ प्रायः यादतक नहीं रहतीं अतः भीतरका त्याग ही असली त्याग है। भीतरका त्याग होनेसे बाहरसे वस्तुएँ अपने पास रहें या न रहें? मनुष्य उनसे बँधता नहीं।