।।2.12।।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2.12।।
na tvevāhaṁ jātu nāsaṁ na tvaṁ neme janādhipāḥ na chaiva na bhaviṣhyāmaḥ sarve vayamataḥ param
na—never; tu—however; eva—certainly; aham—I; jātu—at any time; na—nor; āsam—exist; na—nor; tvam—you; na—nor; ime—these; jana-adhipāḥ—kings; na—never; cha—also; eva—indeed; na bhaviṣhyāmaḥ—shall not exist; sarve vayam—all of us; ataḥ—from now; param—after
अनुवाद
।।2.12।। किसी कालमें मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजालोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद (भविष्य में) मैं, तू और राजलोग - हम सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है।
टीका
।।2.12।। व्याख्या-- [मात्र संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं--शरीरी (सत्) और शरीर (असत्)। ये दोनों ही अशोच्य हैं अर्थात् शोक न शरीरी-(शरीरमें रहनेवाले-) को लेकर हो सकता है और न शरीरको लेकर ही हो सकता है। कारण कि शरीरीका कभी अभाव होता ही नहीं और शरीर कभी रह सकता ही नहीं। इन दोनोंके लिये पूर्वश्लोकमें जो 'अशोच्यान्' पद आया है, उसकी व्याख्या अब शरीरीकी नित्यता और शरीरकी अनित्यताके रूपमें करते हैं।] 'न त्वेहाहं
जातु ৷৷. जनाधिपाः'-- लोगोंकी दृष्टिसे मैंने जबतक अवतार नहीं लिया था, तबतक मैं इस रूपसे (कृष्णरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था और तेरा जबतक जन्म नहीं हुआ था, तबतक तू भी इस रूपसे (अर्जुनरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था तथा इन राजाओंका भी जबतक जन्म नहीं हुआ था, तबतक ये भी इस रूपसे (राजारूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं थे। परन्तु मैं, तू और ये राजालोग इस रूपसे प्रकट न होनेपर भी पहले नहीं थे--ऐसी बात नहीं है। यहाँ
'मैं, तू और ये राजालोग पहले थे--ऐसा कहनेसे ही काम चल सकता था, पर ऐसा न कहकर 'मैं, तू और ये राजालोग पहले नहीं थे, ऐसी बात नहीं' ऐसा कहा गया है। इसका कारण यह है कि 'पहले नहीं थे' ऐसी बात नहीं' ऐसा कहनेसे 'पहले हम सब जरूर थे'--यह बात दृढ़ हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि नित्य-तत्त्व सदा ही नित्य है। इसका कभी अभाव था ही नहीं। 'जातु' कहनेका तात्पर्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमान-कालमें तथा किसी भी देश, परिस्थिति, अवस्था, घटना, वस्तु आदिमें नित्यतत्त्वका किञ्चिन्मात्र भी अभाव नहीं हो सकता।