।।2.15।।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2.15।।

yaṁ hi na vyathayantyete puruṣhaṁ puruṣharṣhabha sama-duḥkha-sukhaṁ dhīraṁ so ’mṛitatvāya kalpate

yam—whom; hi—verily; na—not; vyathayanti—distressed; ete—these; puruṣham—person; puruṣha-ṛiṣhabha—the noblest amongst men, Arjun; sama—equipoised; duḥkha—distress; sukham—happiness; dhīram—steady; saḥ—that person; amṛitatvāya—for liberation; kalpate—becomes eligible

अनुवाद

।।2.15।। कारण कि हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुःखमें सम रहनेवाले जिस धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) व्यथित (सुखी-दुःखी) नहीं कर पाते, वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।  

टीका

।।2.15।। व्याख्या-- 'पुरुषर्षभ'-- मनुष्य प्रायः परिस्थितियोंको बदलनेका ही विचार करता है, जो कभी बदली नहीं जा सकतीं और जिनको बदलना सम्भव ही नहीं। युद्धरूपी परिस्थितिके प्राप्त होनेपर अर्जुनने उसको बदलनेका विचार न करके अपने कल्याणका विचार कर लिया है। यह कल्याणका विचार करना ही मनुष्योंमें उनकी श्रेष्ठता है। 'समदुःखसुखं धीरम्'-- धीर मनुष्य सुखदुःखमें सम होता है। अन्तःकरणकी वृत्तिसे ही सुख और दुःख ये

दोनों अलगअलग दीखते हैं। सुख-दुःखके भोगनेमें पुरुष (चेतन) हेतु है और वह हेतु बनता है प्रकृतिमें स्थित होनेसे (गीता 13। 2021)। जब वह अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है तब सुख-दुःखको भोगनेवाला कोई नहीं रहता। अतः अपने-आपमें स्थित होनेसे वह सुख-दुःखमें स्वाभाविक ही सम हो जाता है।