।।2.37।।

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।2.37।।

hato vā prāpsyasi swargaṁ jitvā vā bhokṣhyase mahīm tasmād uttiṣhṭha kaunteya yuddhāya kṛita-niśhchayaḥ

hataḥ—slain; vā—or; prāpsyasi—you will attain; swargam—celestial abodes; jitvā—by achieving victory; vā—or; bhokṣhyase—you shall enjoy; mahīm—the kingdom on earth; tasmāt—therefore; uttiṣhṭha—arise; kaunteya—Arjun, the son of Kunti; yuddhāya—for fight; kṛita-niśhchayaḥ—with determination

अनुवाद

।।2.37।। अगर युद्धमें तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी और अगर युद्धमें तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा। अतः हे कुन्तीनन्दन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।  

टीका

2.37।। व्याख्या-- 'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्'-- इसी अध्यायके छठे श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि हमलोगोंको इसका भी पता नहीं है कि युद्धमें हम उनको जीतेंगे यह वे हमको जीतेंगे। अर्जुनके इस सन्देहको लेकर भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि अगर युद्धमें तुम कर्ण आदिके द्वारा मारे भी जाओगे तो स्वर्गको चले जाओगे और अगर युद्धमें तुम्हारी जीत हो जायगी तो यहां पृथ्वीका राज्य भोगोगे। इस तरह

तुम्हारे तो दोनों ही हाथोंमें लड्डू हैं। तात्पर्य है कि युद्ध करनेसे तो तुम्हारा दोनों तरफ से लाभ-ही-लाभ है और युद्ध न करनेसे दोनों तरफसे हानि-ही-हानि है। अतः तुम्हें युद्धमें प्रवृत्त हो जाना चाहिये।