।।2.48।।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।

yoga-sthaḥ kuru karmāṇi saṅgaṁ tyaktvā dhanañjaya siddhy-asiddhyoḥ samo bhūtvā samatvaṁ yoga uchyate

yoga-sthaḥ—being steadfast in yog; kuru—perform; karmāṇi—duties; saṅgam—attachment; tyaktvā—having abandoned; dhanañjaya—Arjun; siddhi-asiddhyoḥ—in success and failure; samaḥ—equipoised; bhūtvā—becoming; samatvam—equanimity; yogaḥ—Yog; uchyate—is called

अनुवाद

।।2.48।। हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।  

टीका

2.48।। व्याख्या--  'सङ्गं त्यक्त्वा'-- किसी भी कर्ममें किसी भी कर्मके फलमें, किसी भी देश, काल, घटना, परिस्थिति, अन्तःकरण, बहिःकरण आदि प्राकृत वस्तुमें तेरी आसक्ति न हो, तभी तू निर्लिप्ततापूर्वक कर्म कर सकता है। अगर तू कर्म, फल आदि किसीमें भी चिपक जायेगा, तो निर्लिप्तता कैसे रहेगी? और निर्लिप्तता रहे बिना वह कर्म मुक्तिदायक कैसे होगा?  'सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा'-- आसक्तिके त्यागका परिणाम क्या होगा? सिद्धि और असिद्धिमें समता हो जायगा।