।।2.49।।

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।2.49।।

dūreṇa hy-avaraṁ karma buddhi-yogād dhanañjaya buddhau śharaṇam anvichchha kṛipaṇāḥ phala-hetavaḥ

dūreṇa—(discrad) from far away; hi—certainly; avaram—inferior; karma—reward-seeking actions; buddhi-yogāt—with the intellect established in Divine knowledge; dhanañjaya—Arjun; buddhau—divine knowledge and insight; śharaṇam—refuge; anvichchha—seek; kṛipaṇāḥ—miserly; phala-hetavaḥ—those seeking fruits of their work

अनुवाद

।।2.49।। बुद्धियोग-(समता) की अपेक्षा सकामकर्म दूरसे (अत्यन्त) ही निकृष्ट है। अतः हे धनञ्जय ! तू बुद्धि (समता) का आश्रय ले; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं।  

टीका

2.49।। व्याख्या-- 'दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात्'-- बुद्धियोग अर्थात् समताकी अपेक्षा सकामभावसे कर्म करना अत्यन्त ही निकृष्ट है। कारण कि कर्म भी उत्पन्न और नष्ट होते हैं तथा उन कर्मोंके फलका भी संयोग और वियोग होता है। परन्तु योग (समता) नित्य है; उसका कभी वियोग नहीं होता। उसमें कोई विकृति नहीं होती। अतः समताकी अपेक्षा सकामकर्म अत्यन्त ही निकृष्ट हैं।