Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।

yaḥ sarvatrānabhisnehas tat tat prāpya śhubhāśhubham nābhinandati na dveṣhṭi tasya prajñā pratiṣhṭhitā

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Word Meanings

yaḥwho
sarvatrain all conditions
anabhisnehaḥunattached
tatthat
tatthat
prāpyaattaining
śhubhagood
aśhubhamevil
naneither
abhinandatidelight in
nanor
dveṣhṭidejected by
tasyahis
prajñāknowledge
pratiṣhṭhitāis fixed
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अनुवाद

।।2.57।। सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभको प्राप्त करके न तो अभिनन्दित होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।  

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टीका

2.57।। व्याख्या-- [पूर्वश्लोकमें तो भगवान्ने कर्तव्यकर्म करते हुए निर्विकार रहनेकी बात बतायी। अब इस श्लोकमें कर्मोंके अनुसार प्राप्त होनेवाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें सम, निर्विकार रहनेकी बात बताते हैं।]  'यः सर्वत्रानभिस्नेहः'-- जो सब जगह स्नेहरहित है अर्थात् जिसकी अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि एवं स्त्री, पुत्र, घर, धन आदि किसीमें भी आसक्ति, लगाव नहीं रहा है। वस्तु आदिके बने

रहनेसे मैं बना रहा और उनके बिगड़ जानेसे मैं बिगड़ गया, धनके आनेसे मैं बड़ा हो गया और धनके चले जानेसे मैं मारा गया--यह जो वस्तु आदिमें एकात्मताकी तरह स्नेह है, उसका नाम 'अभिस्नेह' है। स्थितप्रज्ञ कर्मयोगीका किसी भी वस्तु आदिमें यह अभिस्नेह बिलकुल नहीं रहता। बाहरसे वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिका संयोग रहते हुए भी वह भीतरसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है।  'तत्तत्प्राप्य शुभाशुभं नाभिनन्दति न द्वेष्टि'-- जब

उस मनुष्यके सामने प्रारब्धवशात् शुभ-अशुभ, शोभनीय-अशोभनीय, अच्छी-मन्दी, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, तब वह अनुकूल परिस्थितिको लेकर अभिनन्दित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर द्वेष नहीं करता। अनुकूल परिस्थितिको लेकर मनमें जो प्रसन्नता आती है और वाणीसे भी प्रसन्नता प्रकट की जाती है तथा बाहरसे भी उत्सव मनाया जाता है--यह उस परिस्थितिका अभिनन्दन करना है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर मनमें

जो दुःख होता है खिन्नता होती है कि यह कैसे और क्यों हो गया यह नहीं होता तो अच्छा था अब यह जल्दी मिट जाय तो ठीक है--यह उस परिस्थितिसे द्वेष करना है। सर्वत्र स्नेहरहित, निर्लिप्त हुआ मनुष्य अनुकूलताको लेकर अभिनन्दन नहीं करता और प्रतिकूलताको लेकर द्वेष नहीं करता। तात्पर्य है कि उसको अनुकूल-प्रतिकूल अच्छे-मन्दे अवसर प्राप्त होते रहते हैं, पर उसके भीतर सदा निर्लिप्तता बनी रहती है।  'तत्,तत्' कहनेका तात्पर्य

है कि जिन-जिन अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिसे विकार होनेकी सम्भावना रहती है और साधारण लोगोंमें विकार होते हैं, उन-उन अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु आदिके कहीं भी, कभी भी और कैसे भी प्राप्त होनेपर उसको अभिनन्दन और द्वेष नहीं होता।  'तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता'-- उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है, एकरस और एकरूप है। साधनावस्थामें उसकी जो व्यवसायात्मिका बुद्धि थी, वह अब परमात्मामें अचल-अटल हो गयी

है। उसकी बुद्धिमें यह विवेक पूर्णरूपसे जाग्रत् हो गया है कि संसारमें अच्छे-मन्देके साथ वास्तवमें मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है। कारण कि ये अच्छे-मन्दे अवसर तो बदलनेवाले हैं, पर मेरा स्वरूप न बदलनेवाला है; अतः बदलनेवालेके साथ न बदलनेवालेका सम्बन्ध कैसे हो सकता है? वास्तवमें देखा जाय तो फरक न तो स्वरूपमें पड़ता है और न शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिमें। कारण कि अपना जो स्वरूप है, उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी

कोई परिवर्तन नहीं होता; और प्रकृति तथा प्रकृतिके कार्य शरीरादि स्वाभाविक ही बदलते रहते हैं। तो फरक कहाँ पड़ता है? शरीरसे तादात्म्य होनेके कारण बुद्धिमें फरक पड़ता है। जब यह तादात्म्य मिट जाता है, तब बुद्धिमें जो फरक पड़ता था, वह मिट जाता है और बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है। दूसरा भाव यह है कि किसीकी बुद्धि कितनी ही तेज क्यों न हो और वह अपनी बुद्धिसे परमात्माके विषयमें कितना ही विचार क्यों न करता हो,

पर वह परमात्माको अपनी बुद्धिके अन्तर्गत नहीं ला सकता। कारण कि बुद्धि सीमित है और परमात्मा असीम-अनन्त हैं। परन्तु उस असीम परमात्मामें जब बुद्धि लीन हो जाती है, तब उस सीमित बुद्धिमें परमात्माके सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं रहती--यही बुद्धिका परमात्मामें प्रतिष्ठित होना है। कर्मयोगी क्रियाशील होता है। अतः भगवान्ने छप्पनवें श्लोकमें क्रियाकी सिद्धि-असिद्धिमें अस्पृहा और उद्वेग-रहित होनेकी बात कही तथा

इस श्लोकमें प्रारब्धके अनुसार अपने-आप अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर अभिनन्दन और द्वेषसे रहित होनेकी बात कहते हैं। सम्बन्ध--  अब भगवान् आगेके श्लोकसे स्थितप्रज्ञ कैसे बैठता है?' इस तीसरे प्रश्नका उत्तर आरम्भ करते हैं।

भगवद गीता 2.57 - अध्याय 2 श्लोक 57 हिंदी और अंग्रेजी