।।2.58।।

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.58।।

yadā sanharate chāyaṁ kūrmo ’ṅgānīva sarvaśhaḥ indriyāṇīndriyārthebhyas tasya prajñā pratiṣhṭhitā

yadā—when; sanharate—withdraw; cha—and; ayam—this; kūrmaḥ—tortoise; aṅgāni—limbs; iva—as; sarvaśhaḥ—fully; indriyāṇi—senses; indriya-arthebhyaḥ—from the sense objects; tasya—his; prajñā—divine wisdom; pratiṣhṭhitā—fixed in

अनुवाद

।।2.58।। जिस तरह कछुआ अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे ही जिस कालमें यह कर्मयोगी इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे समेट लेता (हटा लेता) है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।  

टीका

2.58।। व्याख्या-- 'यदा संहरते ৷৷. प्रज्ञा प्रतिष्ठिता'--  यहाँ कछुएका दृष्टान्त देनेका तात्पर्य है कि जैसे कछुआ चलता है तो उसके छः अङ्ग दीखते हैं--चार पैर, एक पूँछ और एक मस्तक। परन्तु जब वह अपने अङ्गोंको छिपा लेता है, तब केवल उसकी पीठ ही दिखायी देती है। ऐसे ही स्थितप्रज्ञ पाँच इन्द्रियाँ और एक मन--इन छहोंको अपने-अपने विषयसे हटा लेता है। अगर उसका इन्द्रियों आदिके साथ किञ्चिन्मात्र भी मानसिक सम्बन्ध

बना रहता है, तो वह स्थितप्रज्ञ नहीं होता। यहाँ  'संहरते' क्रिया देनेका मतलब यह हुआ कि वह स्थितप्रज्ञ विषयोंसे इन्द्रियोंका उपसंहार कर लेता है अर्थात वह मनसे भी विषयोंका चिन्तन नहीं करता। इस श्लोकमें  'यदा'  पद तो दिया है, पर  'तदा'  पद नहीं दिया है। यद्यपि  'यत्तदोर्नित्यसम्बन्धः'  के अनुसार जहाँ  'यदा'  आता है, वहाँ  'तदा'  का अध्याहार लिया जाता है अर्थात्  'यदा'  पदके अन्तर्गत ही  'तदा'  पद आ जाता

है, तथापि यहाँ  'तदा'  पदका प्रयोग न करनेका एक गहरा तात्पर्य है कि इन्द्रियोंके अपने-अपने विषयोंसे सर्वथा हट जानेसे स्वतःसिद्ध तत्त्वका जो अनुभव होता है, वह कालके अधीन, कालकी सीमामें नहीं है। कारण कि वह अनुभव किसी क्रिया अथवा त्यागका फल नहीं है। वह अनुभव उत्पन्न होनेवाली वस्तु नहीं है। अतः यहाँ कालवाचक  'तदा'  पद देनेकी जरूरत नहीं है। इसकी जरूरत तो वहाँ होती है, जहाँ कोई वस्तु किसी वस्तुके अधीन होती

है। जैसे आकाशमें सूर्य रहनेपर भी आँखें बंद कर लेनेसे सूर्य नहीं दीखता और आँखें खोलते ही सूर्य दीख जाता है, तो यहाँ सूर्य और आँखोंमें कार्य-कारणका सम्बन्ध नहीं है अर्थात् आँखें खुलनेसे सूर्य पैदा नहीं हुआ है। सूर्य तो पहलसे ज्यों-का-त्यों ही है। आँखे बंद करनेसे पहले भी सूर्य वैसा ही है और आँखें बंद करनेपर भी सूर्य वैसा ही है। केवल आँखें बंद करनेसे हमें उसका अनुभव नहीं हुआ था। ऐसे ही यहाँ इन्द्रियोंको

विषयोंसे हटानेसे स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वका जो अनुभव हुआ है, वह अनुभव मनसहित इन्द्रियोंका विषय नहीं है। तात्पर्य है कि वह स्वतः सिद्ध तत्त्व भोगों-(विषयों-) के साथ सम्बन्ध रखते हुए और भोगोंको भोगते हुए भी वैसा ही है। परन्तु भोगोंके साथ सम्बन्धरूप परदा रहनसे उसका अनुभव नहीं होता, और यह परदा हटते ही उसका अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध-- केवल इन्द्रियोंका विषयोंसे हट जाना ही स्थितप्रज्ञका लक्षण नहीं है इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।