नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना। न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।
nāsti buddhir-ayuktasya na chāyuktasya bhāvanā na chābhāvayataḥ śhāntir aśhāntasya kutaḥ sukham
Word Meanings
अनुवाद
।।2.66।। जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्यकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे उसमें कर्तव्यपरायणताकी भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है?
टीका
2.66।। व्याख्या-- [यहाँ कर्मयोगका विषय है। कर्मयोगमें मन और इन्द्रयोंका संयम करना मुख्य होता है। विवेकपूर्वक संयम किये बिना कामना नष्ट नहीं होती। कामनाके नष्ट हुए बिना बुद्धिकी स्थिरता नहीं होती। अतः कर्मयोगी साधकको पहले मन और इन्द्रियोंका संयम करना चाहिये। परन्तु जिसका मन और इन्द्रियाँ संयमित नहीं है, उसकी बात इस श्लोकमें कहते हैं।]