।।3.10।।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।3.10।।
saha-yajñāḥ prajāḥ sṛiṣhṭvā purovācha prajāpatiḥ anena prasaviṣhyadhvam eṣha vo ’stviṣhṭa-kāma-dhuk
saha—along with; yajñāḥ—sacrifices; prajāḥ—humankind; sṛiṣhṭvā—created; purā—in beginning; uvācha—said; prajā-patiḥ—Brahma; anena—by this; prasaviṣhyadhvam—increase prosperity; eṣhaḥ—these; vaḥ—your; astu—shall be; iṣhṭa-kāma-dhuk—bestower of all wishes
अनुवाद
।।3.10 -- 3.11।। प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्य-कर्मोंके विधानसहित प्रजा-(मनुष्य आदि-) की रचना करके उनसे (प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और वह कर्तव्य-कर्म-रूप यज्ञ तुमलोगोंको कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो। अपने कर्तव्य-कर्मके द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग अपने कर्तव्यके द्वारा तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।
टीका
।।3.10।। व्याख्या--'सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः'--ब्रह्माजी प्रजा (सृष्टि) के रचयिता एवं उसके स्वामी हैं; अतः अपने कर्तव्यका पालन करनेके साथ वे प्रजाकी रक्षा तथा उसके कल्याणका विचार करते रहते हैं। कारण कि जो जिसे उत्पन्न करता है, उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य हो जाता है। ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते, उसकी रक्षामें तत्पर रहते तथा सदा उसके हितकी बात सोचते हैं। इसलिये वे 'प्रजापति' कहलाते
हैं। सृष्टि अर्थात् सर्गके आरम्भमें ब्रह्माजीने कर्तव्य-कर्मोंकी योग्यता और विवेक-सहित मनुष्योंकी रचना की है (टिप्पणी प0 128)। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग कल्याण करनेवाला है। इसलिये ब्रह्माजीने अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करनेका विवेक साथ देकर ही मनुष्योंकी रचना की है।सत्- असत् का विचार करनेमें पशु, पक्षी, वृक्ष आदिके द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्यपालन) होता है; किन्तु मनुष्यको
तो भगवत्कृपासे विशेष विवेक-शक्ति मिली हुई है। अतः यदि वह अपने विवेकको महत्त्व देकर अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोक-हितार्थ कर्म हो सकते हैं।