इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।3.12।।
iṣhṭān bhogān hi vo devā dāsyante yajña-bhāvitāḥ tair dattān apradāyaibhyo yo bhuṅkte stena eva saḥ
Word Meanings
अनुवाद
।।3.12।। यज्ञसे भावित (पुष्ट) हुए देवता भी तुमलोगोंको (बिना माँगे ही) कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओंसे प्राप्त हुई सामग्रीको दूसरोंकी सेवामें लगाये बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है।
टीका
3.12।। व्याख्या--'इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः'--यहाँ भी 'इष्टभोग' शब्दका अर्थ इच्छित पदार्थ नहीं हो सकता। कारण कि पीछेके (ग्यारहवें) श्लोकमें परम कल्याणको प्राप्त होनेकी बात आयी है और उसके हेतुके लिये वह (बारहवाँ) श्लोक है। भोगोंकी इच्छा रहते परम कल्याण कभी हो ही नहीं सकता। अतः यहाँ 'इष्ट' शब्द यज् धातुसे निष्पन्न होनेसे तथा 'भोग' (टिप्पणी प0 132.1) शब्दका अर्थ आवश्यक सामग्री होनेसे
उपर्युक्त पदोंका अर्थ होगा वे देवता तुमलोगोंको यज्ञ (कर्तव्यकर्म) करनेकी आवश्यक सामग्री देते रहेंगे।यहाँ 'यज्ञभाविताः देवाः' पदोंका तात्पर्य है कि देवता तो अपना अधिकार समझकर मनुष्योंको आवश्यक सामग्री प्रदान करते ही हैं केवल मनुष्योंको ही अपना कर्तव्य निभाना है।'तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते' ब्रह्माजीने देवताओंके लिये 'ते देवाः' पदोंका प्रयोग किया है क्योंकि उनके सामने मनुष्य थे देवता नहीं। परन्तु
यहाँ 'एभ्यः'पद (जो इदम् शब्दसे बनता है) का प्रयोग हुआ है जो समीपताका द्योतक है। भगवान्के लिये सभी समीप ही हैं (गीता 7। 26)। इससे सिद्ध होता है कि अब यहाँसे भगवान्के वचन आरम्भ होते हैं। यहाँ 'भुङ्क्ते' (टिप्पणी प0 132.2) पदका तात्पर्य केवल भोजन करनेसे ही नहीं है प्रत्युत शरीरनिर्वाहकी समस्त आवश्यक सामग्री (भोजन, वस्त्र, धन, मकान आदि) को अपने सुख के लिये काममें लानेसे है।