।।3.39।।
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा। कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3.39।।
āvṛitaṁ jñānam etena jñānino nitya-vairiṇā kāma-rūpeṇa kaunteya duṣhpūreṇānalena cha
āvṛitam—covered; jñānam—knowledge; etena—by this; jñāninaḥ—of the wise; nitya-vairiṇā—by the perpetual enemy; kāma-rūpeṇa—in the form of desires; kaunteya—Arjun the son of Kunti; duṣhpūreṇa—insatiable; analena—like fire; cha—and
अनुवाद
।।3.39।। और हे कुन्तीनन्दन ! इस अग्निके समान कभी तृप्त न होनेवाले और विवेकियोंके नित्य वैरी इस कामके द्वारा मनुष्यका विवेक ढका हुआ है।
टीका
3.39।। व्याख्या--'एतेन'-- सैंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने पाप करवानेमें मुख्य कारण 'काम' अर्थात् कामनाको बताया था। उसी कामनाके लिये यहाँ 'एतेन'पद आया है। 'दुष्पूरेणानलेन च'-- जैसे अग्निमें घीकी सुहाती-सुहाती (अनुकूल) आहुति देते रहनेसे अग्नि कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही रहती है, ऐसे ही कामनाके अनुकूल भोग भोगते रहनेसे कामना कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत अधिकाधिक बढ़ती ही रहती है (टिप्पणी प0
194)। जो भी वस्तु सामने आती रहती है, कामना अग्निकी तरह उसे खाती रहती है।भोग और संग्रहकी कामना कभी पूरी होती ही नहीं। जितने ही भोग-पदार्थ मिलते हैं, उतनी ही उनकी भूख बढ़ती है। कारण कि कामना जडकी ही होती है, इसलिये जडके सम्बन्धसे वह कभी मिटती नहीं प्रत्युत अधिकाधिक बढ़ती है। सुन्दरदासजी लिखते हैं--