।।3.4।।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।3.4।।
na karmaṇām anārambhān naiṣhkarmyaṁ puruṣho ’śhnute na cha sannyasanād eva siddhiṁ samadhigachchhati
na—not; karmaṇām—of actions; anārambhāt—by abstaining from; naiṣhkarmyam—freedom from karmic reactions; puruṣhaḥ—a person; aśhnute—attains; na—not; cha—and; sannyasanāt—by renunciation; eva—only; siddhim—perfection; samadhigachchhati—attains
अनुवाद
।।3.4।। मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताको प्राप्त होता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है।
टीका
।।3.4।। व्याख्या-- 'न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते'-- कर्मयोगमें कर्म करना अत्यन्त आवश्यक है। कारण कि निष्कामभावसे कर्म करनेपर ही कर्मयोगकी सिद्धि होती है (टिप्पणी प0 117)। यह सिद्धि मनुष्यको कर्म किये बिना नहीं मिल सकती।मनुष्यके अन्तःकरणमें कर्म करनेका जो वेग विद्यमान रहता है, उसे शान्त करनेके लिये कामनाका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है। कामना रखकर कर्म करनेपर यह वेग मिटता नहीं, प्रत्युत बढ़ता है।