।।3.40।।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते। एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।3.40।।
indriyāṇi mano buddhir asyādhiṣhṭhānam uchyate etair vimohayatyeṣha jñānam āvṛitya dehinam
indriyāṇi—the senses; manaḥ—the mind; buddhiḥ—the intellect; asya—of this; adhiṣhṭhānam—dwelling place; uchyate—are said to be; etaiḥ—by these; vimohayati—deludes; eṣhaḥ—this; jñānam—knowledge; āvṛitya—clouds; dehinam—the embodied soul
अनुवाद
।।3.40।। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इस कामके वास-स्थान कहे गये हैं। यह काम इन- (इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि-) के द्वारा ज्ञानको ढककर देहाभिमानी मनुष्यको मोहित करता है।
टीका
3.40।। व्याख्या--'इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते'-- काम पाँच स्थानोंमें दीखता है (1) पदार्थोंमें (गीता 3। 34), (2) इन्द्रियोंमें, (3) मनमें, (4) बुद्धिमें और (5) माने हुए अहम् (मैं) अर्थात् कर्तामें (गीता 2। 51)। इन पाँच स्थानोंमें दीखनेपर भी काम वास्तवमें माने हुए 'अहम्'-(चिज्जडग्रन्थि-) में ही रहता है। परन्तु उपर्युक्त पाँच स्थानोंमें दिखायी देनेके कारण ही वे इस कामके वास-स्थान कहे जाते हैं।