।।3.5।।

न हि कश्िचत्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।

na hi kaśhchit kṣhaṇam api jātu tiṣhṭhatyakarma-kṛit kāryate hyavaśhaḥ karma sarvaḥ prakṛiti-jair guṇaiḥ

na—not; hi—certainly; kaśhchit—anyone; kṣhaṇam—a moment; api—even; jātu—ever; tiṣhṭhati—can remain; akarma-kṛit—without action; kāryate—are performed; hi—certainly; avaśhaḥ—helpless; karma—work; sarvaḥ—all; prakṛiti-jaiḥ—born of material nature; guṇaiḥ—by the qualities

अनुवाद

।।3.5।। कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि (प्रकृतिके) परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं।

टीका

3.5।। व्याख्या-- 'न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्'-- कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग--किसी भी मार्गमें साधक कर्म किये बिना नहीं रह सकता। यहाँ 'कश्चित् क्षणम्' और 'जातु'--ये तीनों विलक्षण पद हैं। इनमें 'कश्चित्' पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रहता, चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी। यद्यपि ज्ञानीका अपने कहलानेवाले शरीरके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता, तथापि उसके

कहलानेवाले शरीरसे भी हरदम क्रिया होती रहती है। 'क्षणम्'पदका प्रयोग करके भगवान् यह कहते हैं कि यद्यपि मनुष्य 'मैं हरदम कर्म करता हूँ' ऐसा नहीं मानता, तथापि जबतक वह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानता है, तबतक वह एक क्षणके लिये भी कर्म किये बिना नहीं रहता। 'जातु' पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि जाग्रत्, स्वप्न्, सुषुप्ति, मूर्च्छा आदि किसी भी अवस्थामें मनुष्य कर्म किये बिना यह नहीं रह सकता। इसका कारण

भगवान् इसी श्लोकके उत्तरार्धमें 'अवशः' पदसे बताते हैं कि प्रकृतिके परवश होनेके कारण उसे कर्म करने ही पड़ते हैं। प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है। साधकको अपने लियेकुछ नहीं करना है। जो विहित कर्म सामने आ जाय, उसे केवल दूसरोंके हितकी दृष्टिसे कर देना है। परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेसे साधक निषिद्ध-कर्म तो कर ही नहीं सकता।बहुत-से मनुष्य केवल स्थूलशरीरकी क्रियाओंको कर्म मानते हैं, पर गीता मनकी क्रियाओंको

भी कर्म मानती है। गीताने शारीरिक, वाचिक और मानसिक रूपसे की गयी मात्र क्रियाओंको कर्म माना है-- 'शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः' (गीता 18। 15)। जिस शारीरिक अथवा मानसिक क्रियाओंके साथ मनुष्य अपना सम्बन्ध मान लेता है, वे ही सब क्रियाएँ 'कर्म' बनकर उसे बाँधनेवाली होती हैं, अन्य क्रियाएँ नहीं।मनुष्योंकी एक ऐसी धारणा बनी हुई है, जिसके अनुसार वे बच्चोंका पालन-पोषण तथा आजीविका-व्यापार, नौकरी, अध्यापन

आदिको ही कर्म मानते हैं और इनके अतिरिक्त खाना-पीना, सोना, बैठना, चिन्तन करना आदिको कर्म नहीं मानते। इसी कारण कई मनुष्य व्यापार आदि कर्मोंको छोड़कर ऐसा मान लेते हैं कि मैं कर्म नहीं कर रहा हूँ। परन्तु यह उनकी भारी भूल है। शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी स्थूलशरीरकी क्रियाएँ; नींद, चिन्तन आदि सूक्ष्म-शरीरकी क्रियाएँ और समाधि आदि कारण-शरीरकी क्रियाएँ ये सब कर्म ही हैं। जबतक शरीरमें अहंता-ममता है तबतक शरीरसे होनेवाली

मात्र क्रियाएँ कर्म हैं। कारण कि शरीर प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति कभी अक्रिय नहीं होती। अतः शरीरमें अहंताममता रहते हुए कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता, चाहे वह अवस्था प्रवृत्तिकी हो या निवृत्तिकी। 'कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः'-- प्रकृतिजन्य गुण (प्रकृतिके) परवश हुए प्राणियोंसे कर्म कराते हैं। परवश होनेपर प्रकृतिके गुणोंद्वारा कर्म कराये जाते

हैं; क्योंकि प्रकृति एवं उसके गुण निरन्तर क्रियाशील हैं (गाता 3। 27 13। 29)। यद्यपि आत्मा स्वयं अक्रिय, असंग, अविनाशी, निर्विकार तथा निर्लिप्त है, तथापि जबतक वह प्रकृति एवं उसके कार्य--स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरमें किसी भी शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानकर उससे सुख चाहता है, तबतक वह प्रकृतिके परवश रहता है (गीता 14। 5)। इसी परवशताको यहाँ 'अवशः' पदसे कहा गया है। नवें अध्यायके आठवें श्लोकमें और आठवें अध्यायके

उन्नीसवेँ श्लोकमें भी प्रकृतिके साथ सम्बन्ध माननेसे परवश हुए जीवके द्वारा कर्म करनेकी बात कही गयी है।स्वभाव बनता है वृत्तियोंसे, वृत्तियाँ बनती हैं गुणोंसे और गुण पैदा होते हैं प्रकृतिसे। अतः चाहे स्वभावके परवश कहो, चाहे गुणोंके परवश कहो और चाहे प्रकृतिके परवश कहो, एक ही बात है। वास्तवमें सबके मूलमें प्रकृति-जन्य पदार्थोंकी परवशता ही है। इसी परवशतासे सभी परवशताएँ पैदा होती हैं। अतः प्रकृतिजन्य पदार्थोंकी

परवशताको ही कहीं कालकी, कहीं स्वभावकी, कहीं कर्मकी और कहीं गुणोंकी परवशता कह दिया है। तात्पर्य यह है कि यह जीव जबतक प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत नहीं होता, परमात्माकी प्राप्ति नहीं कर लेता, तबतक यह गुण, काल, स्वभाव आदिके अवश (परवश) ही रहता है अर्थात् यह जीव जबतक प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध मानता है, प्रकृतिमें स्थित रहता है, तबतक यह कभी गुणोंके, कभी कालके, कभी भोगोंके और कभी स्वभावके परवश होता रहता

है कभी स्ववश (स्वतन्त्र) नहीं रहता। इनके सिवाय यह परिस्थिति, व्यक्ति, स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदिके भी परवश होता रहता है। परन्तु जब यह गुणोंसे अतीत अपने स्वरूपका अथवा परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है, तो फिर इसकी यह परवशता नहीं रहती और यह स्वतःसिद्ध स्वतन्त्रताको प्राप्त हो जाता है।