।।4.18।।

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18।।

karmaṇyakarma yaḥ paśhyed akarmaṇi cha karma yaḥ sa buddhimān manuṣhyeṣhu sa yuktaḥ kṛitsna-karma-kṛit

karmaṇi—action; akarma—in inaction; yaḥ—who; paśhyet—see; akarmaṇi—inaction; cha—also; karma—action; yaḥ—who; saḥ—they; buddhi-mān—wise; manuṣhyeṣhu—amongst humans; saḥ—they; yuktaḥ—yogis; kṛitsna-karma-kṛit—performers all kinds of actions

अनुवाद

।।4.18।। जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है,  योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला  है।

टीका

4.18।। व्याख्या--'कर्मण्यकर्म यः पश्येत्'-- कर्ममें अकर्म देखनेका तात्पर्य है--कर्म करते हुए अथवा न करते हुए उससे निर्लिप्त रहना अर्थात् अपने लिये कोई भी प्रवृत्ति या निवृत्ति न करना। अमुक कर्म मैं करता हूँ, इस कर्मका अमुक फल मुझे मिले--ऐसा भाव रखकर कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मोंसे बँधता है। प्रत्येक कर्मका आरम्भ और अन्त होता है, इसलिये उसका फल भी आरम्भ और अन्त होनेवाला होता है। परन्तु जीव स्वयं नित्य-निरंतर

रहता है। इस प्रकार यद्यपि जीव स्वयं परिवर्तनशील कर्म और उसके फलसे सर्वथा सम्बन्धरहित है, फिर भी वह फलकी इच्छाके कारण उनसे बँध जाता है। इसीलिये चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मेरेको कर्म नहीं बाँधते; क्योंकि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है। फलकी स्पृहा या इच्छा ही बाँधनेवाली है--'फले सक्तो निबध्यते' (गीता 5। 12)।फलकी इच्छा न रखनेसे नया राग उत्पन्न नहीं होता और दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे पुराना

राग नष्ट हो जाता है। इस प्रकार रागरूप बन्धन न रहनेसे साधक सर्वथा वीतराग हो जाता है। वीतराग होनेसे सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। जीवका जन्म कर्मोंके अनुबन्धसे होता है। जैसे, जिस परिवारमें जन्म लिया है, उस परिवारके लोगोंसे ऋणानुबन्ध है अर्थात् किसीका ऋण चुकाना है और किसीसे ऋण वसूल करना है। कारण कि अनेक जन्मोंमें अनेक लोगोंसे लिया है और अनेक लोगोंको दिया है। यह लेन-देनका व्यवहार अनेक जन्मोंसे चला आ रहा

है। इसको बंद किये बिना जन्म-मरणसे छुटकारा नहीं मिल सकता। इसको बंद करनेका उपाय है--आगेसे लेना बंद कर दें अर्थात् अपने अधिकारका त्याग कर दें और हमारेपर जिनका अधिकार है, उनकी सेवा करनी आरम्भ कर दें। इस प्रकार नया ऋण लें नहीं और पुराना ऋण (दूसरोंके लिये कर्म करके) चुका दें, तो ऋणानुबन्ध (लेनदेनका व्यवहार) समाप्त हो जायगा अर्थात् जन्म-मरण बंद हो जायगा (गीता 4। 23)। जैसे, कोई दूकानदार अपनी दूकान उठाना चाहता

है, तो वह दो काम करेगा-- पहला ,जिसको देना है, उसको दे देगा और दूसरा, जिससे लेना है, वह ले लेगा अथवा छोड़ देगा। ऐसा करनेसे उसकी दूकान उठ जायगी। अगर वह यह विचार रखेगा कि जो लेना है, वह सब-का-सब ले लूँ, तो दूकान उठेगी नहीं। कारण कि जबतक वह लेनेकी इच्छासे वस्तुएँ देता रहेगा, तबतक दूकान चलती ही रहेगी, उठेगी नहीं।