।।4.24।।

ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।।

brahmārpaṇaṁ brahma havir brahmāgnau brahmaṇā hutam brahmaiva tena gantavyaṁ brahma-karma-samādhinā

brahma—Brahman; arpaṇam—the ladle and other offerings; brahma—Brahman; haviḥ—the oblation; brahma—Brahman; agnau—in the sacrificial fire; brahmaṇā—by that person; hutam—offered; brahma—Brahman; eva—certainly; tena—by that; gantavyam—to be attained; brahma—Brahman; karma—offering; samādhinā—those completely absorbed in God-consciousness

अनुवाद

।।4.24।। जिस यज्ञमें अर्पण भी ब्रह्म है, हवी भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है, (ऐसे यज्ञको करनेवाले) जिस मनुष्यकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करनेयोग्य फल भी ब्रह्म ही है।

टीका

।।4.24।। व्याख्या--[यज्ञमें आहुति मुख्य होती है। वह आहुति तब पूर्ण होती है, जब वह अग्निरूप ही हो जाय अर्थात् हव्य पदार्थकी अग्निसे अलग सत्ता ही न रहे। इसी प्रकार जितने भी साधन हैं, सब साध्यरूप हो जायँ, तभी वे यज्ञ होते हैं।जितने भी यज्ञ हैं, उनमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करना भावना नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है। भावना तोपदार्थोंकी है। इस चौबीसवें श्लोकसे तीसवें श्लोकतक जिन यज्ञोंका वर्णन किया गया

है, वे सब 'कर्मयोग' के अन्तर्गत हैं। कारण कि भगवान्ने इस प्रकरणके उपक्रममें भी 'तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्' (4। 16) ऐसा कहा है; और उपसंहारमें भी 'कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे' (4। 32)--ऐसा कहा है तथा बीचमें भी कहा है--'यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते' (4। 23)। मुख्य बात यह है कि यज्ञकर्ताके सभी कर्म 'अकर्म' हो जायँ। यज्ञ केवल यज्ञ-परम्पराकी रक्षाके

लिये किये जायँ तो सब-के-सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। अतः इन सब यज्ञोंमें 'कर्ममें अकर्म' का ही वर्णन है।]'ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः'-- जिस पात्रसे अग्निमें आहुति दी जाती है, उस स्रुक्, स्रुवा आदिको यहाँ 'अर्पणम्' पदसे कहा गया है--'अर्प्यते अनेन इति अर्पणम्।' उस अर्पणको ब्रह्म ही माने।तिल, जौ, घी आदि जिन पदार्थोंका हवन किया जाता है, उन हव्य पदार्थोंको भी ब्रह्म ही माने। 'ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्'-- आहुति देनेवाला भी ब्रह्म ही है (गीता 13। 2), जिसमें आहुति दी जा रही है, वह अग्नि भी ब्रह्म ही है और आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म ही है--ऐसा माने।