।।5.21।।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्। स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।5.21।।
bāhya-sparśheṣhvasaktātmā vindatyātmani yat sukham sa brahma-yoga-yuktātmā sukham akṣhayam aśhnute
bāhya-sparśheṣhu—external sense pleasure; asakta-ātmā—those who are unattached; vindati—find; ātmani—in the self; yat—which; sukham—bliss; saḥ—that person; brahma-yoga yukta-ātmā—those who are united with God through yog; sukham—happiness; akṣhayam—unlimited; aśhnute—experiences
अनुवाद
।।5.21।। बाह्यस्पर्शमें आसक्तिरहित अन्तःकरणवाला साधक आत्मामें जो सुख है, उसको प्राप्त होता है। फिर वह ब्रह्ममें अभिन्नभावसे स्थित मनुष्य अक्षय सुखका अनुभव करता है।
टीका
5.21।। व्याख्या--'बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा'--परमात्माके अतिरिक्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिमें तथा शब्द, स्पर्श आदि विषयोंके संयोगजन्य सुखमें जिसकी आसक्ति मिट गयी है, ऐसे साधकके लिये यहाँ ये पद प्रयुक्त हुए हैं। जिन साधकोंकी आसक्ति अभी मिटी नहीं है, पर जिनका उद्देश्य आसक्तिको मिटानेका हो गया है, उन साधकोंको भी आसक्तिरहित मान लेना चाहिये। कारण कि उद्देश्यकी दृढ़ताके कारण वे भी शीघ्र ही
आसक्तिसे छूट जाते हैं।पूर्वश्लोकमें वर्णित 'प्रियको प्राप्त होकर हर्षित और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न नहीं होना चाहिये'--ऐसी स्थितिको प्राप्त करनेके लिये बाह्यस्पर्शमें आसक्तिरहित होना आवश्यक है।उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुमात्रका नाम 'बाह्यस्पर्श' है, चाहे उसका सम्बन्ध बाहरसे हो या अन्तःकरणसे। जबतक बाह्यस्पर्शमें आसक्ति रहती है, तबतक अपने स्वरूपका अनुभव नहीं होता। बाह्यस्पर्श निरन्तर बदलता रहता है,
पर आसक्तिके कारण उसके बदलनेपर दृष्टि नहीं जाती और उसमें सुखका अनुभव होता है। पदार्थोंको अपरिवर्तनशील, स्थिर माननेसे ही मनुष्य उनसे सुख लेता है। परन्तु वास्तवमें उन पदार्थोंमें सुख नहीं है। सुख पदार्थोंके सम्बन्ध-विच्छेद-से ही होता है। इसीलिये सुषुप्तिमें जब पदार्थोंके सम्बन्धकी विस्मृति हो जाती है, तब सुखका अनुभव होता है।वहम तो यह है कि पदार्थोंके बिना मनुष्य जी नहीं सकता, पर वास्तवमें देखा जाय तो
बाह्य पदार्थोंके वियोगके बिना मनुष्य जी ही नहीं सकता। इसीलिये वह नींद लेता है, क्योंकि नींदमें पदार्थोंको भूल जाते हैं। पदार्थोंको भूलनेपर भी नींदसे जो सुख, ताजगी, बल, नीरोगता, निश्चिन्तता आदि मिलती है, वह जाग्रत्में पदार्थोंके संयोगसे नहीं मिल सकती। इसलिये जाग्रत्में मनुष्यको विश्राम पानेकी, प्राणी-पदार्थोंसे अलग होनेकी इच्छा होती है। वह नींदको अत्यन्त आवश्यक समझता है; क्योंकि वास्तवमें पदार्थोंके
वियोगसे ही मनुष्यको जीवन मिलता है।नींद लेते समय दो बातें होती हैं--एक तो मनुष्य बाह्य पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहता है और दूसरी, उसमें यह भाव रहता है कि नींद लेनेके बाद अमुक कार्य करना है। इन दोनों बातोंमें पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद चाहना तो स्वयंकी इच्छा है, जो सदा एक ही रहती है; परन्तु कार्य करनेका भाव बदलता रहता है। कार्य करनेका भाव प्रबल रहनेके कारण मनुष्यकी दृष्टि पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेदकी
तरफ नहीं जाती। वह पदार्थोंका सम्बन्ध रखते हुए ही नींद लेता है और जागता है।यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि सम्बन्धी तो नहीं रहता, पर सम्बन्ध रह जाता है ! इसका कारण यह है कि स्वयं (अविनाशी चेतन) जिस सम्बन्धको अपनेमें मान लेता है, वह मिटता नहीं। इस माने हुए सम्बन्धको मिटानेका उपाय है--अपनेमें सम्बन्धको न माने। कारण कि प्राणी-पदार्थोंसे सम्बन्ध वास्तवमें है नहीं, केवल माना हुआ है। मानी हुई बात न माननेपर टिक
नहीं सकती और मान्यताको पकड़े रहनेपर किसी अन्य साधनसे मिट नहीं सकती। इसलिये माने हुए सम्बन्धकी मान्यताको वर्तमानमें ही मिटा देना चाहिये। फिर मुक्ति स्वतःसिद्ध है। बाह्य पदार्थोंका सम्बन्ध अवास्तविक है, पर परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध वास्तविक है। मनुष्य सुखकी इच्छासे बाह्य पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, पर परिणाममें उसे दुःख-ही-दुख प्राप्त होता है (गीता 5। 22)। इस प्रकार अनुभव करनेसे बाह्य पदार्थोंकी आसक्ति मिट जाती है।