।।5.25।।

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः। छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।5.25।।

labhante brahma-nirvāṇam ṛiṣhayaḥ kṣhīṇa-kalmaṣhāḥ chhinna-dvaidhā yatātmānaḥ sarva-bhūta-hite ratāḥ

labhante—achieve; brahma-nirvāṇam—liberation from material existence; ṛiṣhayaḥ—holy persons; kṣhīṇa-kalmaṣhāḥ—whose sins have been purged; chhinna—annihilated; dvaidhāḥ—doubts; yata-ātmānaḥ—whose minds are disciplined; sarva-bhūta—for all living entities; hite—in welfare work; ratāḥ—rejoice

अनुवाद

।।5.25।। जिनका शरीर मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसहित वशमें है, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण कल्मष (दोष) नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं।

टीका

5.25।। व्याख्या--'यतात्मानः'--नित्य सत्यतत्त्वकी प्राप्तिका दृढ़ लक्ष्य होनेके कारण साधकोंको शरीर-इन्द्रियाँ-मनबुद्धि वशमें करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही सुगमतापूर्वक उनके वशमें हो जाते हैं। वशमें होनेके कारण इनमें राग-द्वेषादि दोषोंका अभाव हो जाता है और इनके द्वारा होनेवाली प्रत्येक क्रिया दूसरोंका हित करनेवाली हो जाती है।शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपने और अपने लिये मानते रहनेसे ही

ये अपने वशमें नहीं होते और इनमें राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि दोष विद्यमान रहते हैं। ये दोष जबतक विद्यमान रहते हैं, तबतक साधक स्वयं इनके वशमें रहता है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह शरीरादिको कभी अपना और अपने लिये न माने। ऐसा माननेसे इनकी आग्रहकारिता समाप्त हो जाती है और ये वशमें हो जाते हैं। अतः जिनका शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिमें अपनेपनका भाव नहीं है तथा जो इन शरीरादिको कभी अपना स्वरूप नहीं मानते, ऐसे सावधान साधकोंके लिये यहाँ 'यतात्मानः' पद आया है।