।।5.6।।

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।5.6।।

sannyāsas tu mahā-bāho duḥkham āptum ayogataḥ yoga-yukto munir brahma na chireṇādhigachchhati

sanyāsaḥ—renunciation; tu—but; mahā-bāho—mighty-armed one; duḥkham—distress; āptum—attains; ayogataḥ—without karm yog; yoga-yuktaḥ—one who is adept in karm yog; muniḥ—a sage; brahma—Brahman; na chireṇa—quickly; adhigachchhati—goes

अनुवाद

।।5.6।।  परन्तु हे महाबाहो ! कर्मयोगके बिना संन्यास सिद्ध होना कठिन है। मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।

टीका

5.6।। व्याख्या--'संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः'--सांख्ययोगकी सफलताके लिये कर्मयोगका साधन करना आवश्यक है; क्योंकि उसके बिना सांख्य-योगकी सिद्धि कठिनतासे होती है। परन्तु कर्मयोगकी सिद्धिके लिये सांख्ययोगका साधन करनेकी आवश्यकता नहीं है। यही भाव यहाँ 'तु' पदसे प्रकट किया गया है।सांख्ययोगीका लक्ष्य परमात्मतत्त्वका अनुभव करना होता है। परन्तु राग रहते हुए इस साधनके द्वारा परमात्मतत्त्वके अनुभवकी

तो बात ही क्या है, इस साधनका समझमें आना भी कठिन हैराग मिटानेका सुगम उपाय है--कर्मयोगका अनुष्ठान करना। कर्मयोगमें प्रत्येक क्रिया दूसरोंके हितके लिये ही की जाती है। दूसरोंके हितका भाव होनेसे अपना राग स्वतः मिटता है। इसलिये कर्मयोगके आचरणद्वारा राग मिटाकर सांख्ययोगका साधन करना सुगम पड़ता है। कर्मयोगका साधन किये बिना सांख्ययोगका सिद्ध होना कठिन है।