।।5.7।।

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः। सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।5.7।।

yoga-yukto viśhuddhātmā vijitātmā jitendriyaḥ sarva-bhūtātma-bhūtātmā kurvann api na lipyate

yoga-yuktaḥ—united in consciousness with God; viśhuddha-ātmā—one with purified intellect; vijita-ātmā—one who has conquered the mind; jita-indriyaḥ—having conquered the senses; sarva-bhūta-ātma-bhūta-ātmā—one who sees the Soul of all souls in every living being; kurvan—performing; api—although; na—never; lipyate—entangled

अनुवाद

।।5.7।। जिसकी इन्द्रियाँ अपने वशमें हैं, जिसका अन्तःकरण निर्मल है, जिसका शरीर अपने वशमें है और सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्मा ही जिसकी आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।

टीका

5.7।। व्याख्या--'जितेन्द्रियः' इन्द्रियाँ वशमें होनेका तात्पर्य है--इन्द्रियोंका राग-द्वेषसे रहित होना। राग-द्वेषसे रहित होनेपर इन्द्रियोंमें मनको विचलित करनेकी शक्ति नहीं रहती (टिप्पणी प0 287.1)। साधक उनको अपने मनके अनुकूल चाहे जहाँ लगा सकता है।कर्मयोगके साधकके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना आवश्यक है। इसीलिये भगवान् कर्मयोगके प्रकरणमें इन्द्रियोंको वशमें करनेकी बात विशेषरूपसे कहते हैं; जैसे--'यस्त्विन्द्रियाणि

मनसा नियम्य' (3। 7) ;'तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य' (3। 41)। कर्मयोगीका कर्मोंके साथ अधिक सम्बन्ध रहता है; इसलिये इन्द्रियाँ वशमें न होनेसे उसके विचलित होनेकी सम्भावना रहती है। कर्मयोगके साधनमें दूसरोंके हितके लिये सेवारूपसे कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है, जिसके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना बहुत जरूरी है। इन्द्रियाँ वशमें हुए बिना कर्मयोगका साधन होना कठिन है।