।।6.1।।

श्री भगवानुवाच अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।6.1।।

śhrī bhagavān uvācha anāśhritaḥ karma-phalaṁ kāryaṁ karma karoti yaḥ sa sannyāsī cha yogī cha na niragnir na chākriyaḥ

śhrī-bhagavān uvācha—the Supreme Lord said; anāśhritaḥ—not desiring; karma-phalam—results of actions; kāryam—obligatory; karma—work; karoti—perform; yaḥ—one who; saḥ—that person; sanyāsī—in the renounced order; cha—and; yogī—yogi; cha—and; na—not; niḥ—without; agniḥ—fire; na—not; cha—also; akriyaḥ—without activity

अनुवाद

।।6.1।। श्रीभगवान् बोले -- कर्मफलका आश्रय न लेकर जो कर्तव्यकर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्निका त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी नहीं होता।

टीका

।।6.1।। व्याख्या--अनाश्रितः कर्मफलम् इन पदोंका आशय यह प्रतीत होता है कि मनुष्यको किसी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया आदिका आश्रय नहीं रखना चाहिये। कारण कि यह जीव स्वयं परमात्माका अंश होनेसे नित्य-निरन्तर रहनेवाला है और यह जिन वस्तु, व्यक्ति आदिका आश्रय लेता है, वे उत्पत्ति-विनाशशील तथा प्रतिक्षण परिवर्तित होनेवाले हैं। वे तो परिवर्तनशील होनेके कारण नष्ट हो जाते हैं और

यह (जीव) रीता-का-रीता रह जाता है। केवल रीता ही नहीं रहता, प्रत्युत उनके रागको पकड़े रहता है। जबतक यह उनके रागको पकड़े रहता है, तबतक इसका कल्याण नहीं होता अर्थात् वह राग उसके ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बन जाता है (गीता 13। 21)। अगर यह उस रागका त्याग कर दे तो यह स्वतः मुक्त हो जायगा। वास्तवमें यह स्वतः मुक्त है ही, केवल रागके कारण उस मुक्तिका अनुभव नहीं होता। अतः भगवान् कहते हैं कि मनुष्य कर्मफलका

आश्रय न रखकर कर्तव्य-कर्म करे। कर्मफलके आश्रयका त्याग करनेवाला तो नैष्ठिकी शान्तिको प्राप्त होता है, पर कर्मफलका आश्रय रखनेवाला बँध जाता है (गीता 5। 12)।स्थूल, सूक्ष्म और कारण--ये तीनों शरीर 'कर्मफल' हैं। इन तीनोंमेंसे किसीका भी आश्रय न लेकर इनको सबके हितमें लगाना चाहिये। जैसे, स्थूलशरीरसे क्रियाओँ और पदार्थोंको संसारका ही मानकर उनका उपयोग संसारकी सेवा-(हित-) में करे, सूक्ष्मशरीरसे दूसरोंका हित कैसे

हो, सब सुखी कैसे हों, सबका उद्धार कैसे हो--ऐसा चिन्तन करे; और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरता-(समाधि-) का भी फल संसारके हितके लिये अर्पण करे। कारण कि ये तीनों शरीर अपने (व्यक्तिगत) नहीं हैं और अपने लिये भी नहीं हैं, प्रत्युत संसारके और संसारकी सेवाके लिये ही हैं। इन तीनोंकी संसारके साथ अभिन्नता और अपने स्वरूपके साथ भिन्नता है। इस तरह इन तीनोंका आश्रय न लेना ही 'कर्मफलका' आश्रय न लेना' है और इन तीनोंसे

केवल संसारके हितके लिये कर्म करना ही 'कर्तव्य-कर्म करना' है।आश्रय न लेनेका तात्पर्य हुआ कि साधनरूपसे तो शरीरादिको दूसरोंके हितके लिये काममें लेना है, पर स्वयं उनका आश्रय नहीं लेना है अर्थात् उनको अपना और अपने लिये नहीं मानना है। कारण कि मनुष्य-जन्ममें शरीर आदिका महत्त्व नहीं है ,प्रत्युत शरीर आदिके द्वारा किये जानेवाले साधनका महत्त्व है। अतः संसारसे मिली हुई चीज संसारको दे दें, संसारकी सेवामें लगा

दें तो हम 'संन्यासी' हो गये और मिली हुई चीजमें अपनापन छोड़ दें तो हम 'त्यागी' हो गये।कर्मफलका आश्रय न लेकर कर्तव्य-कर्म करनेसे क्या होगा? अपने लिये कर्म न करनेसे नयी आसक्ति तो बनेगी नहीं और केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे पुरानी आसक्ति मिट जायगी तथा कर्म करनेका वेग भी मिट जायगा। इस प्रकार आसक्तिके सर्वथा मिटनेसे मुक्ति स्वतःसिद्ध है। उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओँको पकड़नेका नाम बन्धन है और उनसे छूटनेका नाम मुक्ति है। उन उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंसे छूटनेका उपाय है--उनका आश्रय न लेना अर्थात् उनके साथ ममता न करना और अपने जीवनको उनके आश्रित न मानना।