।।6.20।।

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया। यत्र चैवात्मनाऽऽत्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।6.20।।

yatroparamate chittaṁ niruddhaṁ yoga-sevayā yatra chaivātmanātmānaṁ paśhyann ātmani tuṣhyati

yatra—when; uparamate—rejoice inner joy; chittam—the mind; niruddham—restrained; yoga-sevayā—by the practice of yog; yatra—when; cha—and; eva—certainly; ātmanā—through the purified mind; ātmānam—the soul; paśhyan—behold; ātmani—in the self; tuṣhyati—is satisfied

अनुवाद

।।6.20।। योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आप से अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें ही सन्तुष्ट हो जाता है।

टीका

।।6.20।। व्याख्या--'यत्रोपरमते चित्तं ৷৷. पश्यन्नात्मनि तुष्यति'--ध्यानयोगमें पहले 'मनको केवल स्वरूपमें ही लगाना है' यह धारणा होती है। ऐसी धारणा होनेके बाद स्वरूपके सिवाय दूसरी कोई वृत्ति पैदा हो भी जाय, तो उसकी उपेक्षा करके उसे हटा देने और चित्तको केवल स्वरूपमें ही लगानेसे जब मनका प्रवाह केवल स्वरूपमें ही लग जाता है, तब उसको ध्यान कहते हैं। ध्यानके समय ध्याता, ध्यान और ध्येय--यह त्रिपुटी रहती है

अर्थात् साधक ध्यानके समय अपनेको ध्याता (ध्यान करनेवाला) मानता है, स्वरूपमें तद्रूप होनेवाली वृत्तिको ध्यान मानता है और साध्यरूप स्वरूपको ध्येय मानता है। तात्पर्य है कि जबतक इन तीनोंका अलग-अलग ज्ञान रहता है, तबतक वह 'ध्यान' कहलाता है। ध्यानमें ध्येयकी मुख्यता होनेके कारण साधक पहले अपनेमें ध्यातापना भूल जाता है। फिर ध्यानकी वृत्ति भी भूल जाता है। अन्तमें केवल ध्येय ही जाग्रत् रहता है। इसको 'समाधि' कहते

हैं। यह 'संप्रज्ञातसमाधि' है जो चित्तकी एकाग्र अवस्थामें होती है। इस समाधिके दीर्घकालके अभ्याससे फिर 'असंप्रज्ञात-समाधि' होती है। इन दोनों समाधियोंमें भेद यह है कि जबतक ध्येय, ध्येयका नाम और नाम-नामीका सम्बन्ध--ये तीनों चीजें रहती हैं, तबतक वह 'संप्रज्ञात-समाधि' होती है। इसीको चित्तकी 'एकाग्र' अवस्था कहते हैं। परन्तु जब नामकी स्मृति न रहकर केवल नामी (ध्येय) रह जाता है, तब वह 'असंप्रज्ञात-समाधि' होती

है। इसीको चित्तकी 'निरुद्ध' अवस्था कहते हैं।निरुद्ध अवस्थाकी समाधि दो तरहकी होती है--सबीज और निर्बीज। जिसमें संसारकी सूक्ष्म वासना रहती है, वह 'सबीज समाधि' कहलाती है। सूक्ष्म वासनाके कारण सबीज समाधिमें सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। ये सिद्धियाँ सांसारिक दृष्टिसे तो ऐश्वर्य हैं, पर पारमार्थिक दृष्टिसे (चेतन-तत्त्वकी प्राप्तिमें) विघ्न हैं। ध्यानयोगी जब इन सिद्धियोंको निस्तत्त्व समझकर इनसे उपराम हो जाता है, तब उसकी 'निर्बीज समाधि' होती है, जिसका यहाँ (इस श्लोकमें)